Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 280
________________ योगसार प्राभृत अन्वय :- - चित्र - दुःखमहाबीजे विपर्यये नष्टे सति निर्वाणे परं तद्गुणं पश्यत: परमा भक्ति: (भवति) । सरलार्थ :- अनेक प्रकार के दुःखों के बीजस्वरूप मिथ्यात्व के नष्ट होने पर निर्वाण अर्थात् मुक्त-अवस्था में प्राप्त होनेवाले सर्वोत्तम गुणसमूहों को देखने-जाननेवाले साधक को परमभक् व्यक्त होती है । २९० भावार्थ : :- इस श्लोक में ग्रंथकार सम्यक्त्व तथा सम्यग्ज्ञान की महिमा व्यक्त कर रहे हैं । समयसार शास्त्र के निश्चयस्तुति के प्रकरण में ३१ से ३३ तीन गाथाएँ आयी हैं। इनकी टीका में आचार्य अमृतचंद्र ने विशेष खुलासा किया है। इन सबका भाव यहाँ ग्रंथकार ने संक्षेप में व्यक्त किया है । पाठकों को समयसार के उक्त प्रकरण का गहराई से अवश्य अध्ययन करना चाहिए। समयसार में निश्चय स्तुति शब्द का प्रयोग है, यहाँ परम भक्ति शब्द से उसी भाव को व्यक्त किया है । सच्चे त्याग का स्वरूप - ज्ञानवन्तः सदा बाह्यप्रत्याख्यान - विशारदाः । ततस्तस्य परित्यागं कुर्वते परमार्थतः । । ४८५।। अन्वय :- तत: बाह्यप्रत्याख्यान-विशारदाः ज्ञानवन्त: परमार्थत: तस्य (विपर्यय - ज्ञानस्य ) सदा परित्यागं कुर्वते । सरलार्थ :- इसकारण बाह्य पदार्थों के त्याग में प्रवीण अर्थात् सम्यग्ज्ञान के धारक साध मिथ्यात्व का वास्तविकरूप से त्याग करते हैं । भावार्थ :- वास्तविक देखा जाय तो मिथ्यात्व का त्याग ही बहुत बड़ा त्याग है। श्रद्धा में यथार्थता आते ही जीवन बदल जाता है। सम्यग्दृष्टि की मात्र श्रद्धा ही सम्यक् होती है, ऐसा नहीं; अनंतगुणों में सम्यक्पना व्यक्त होता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि ही सच्चा त्यागी है। यहाँ चारित्र में शुद्धि की वृद्धि के लिए जो पुरुषार्थ आवश्यक होता है, वह श्रद्धा की अपेक्षा से कई गुणा अधिक होता है; यह स्वीकारना भी आवश्यक है । ग्रंथकार ने समयसार के ३४, ३५ गाथाओं का मर्म एक ही श्लोक में देने का प्रयास किया है । इसलिए दोनों गाथाओं का टीका सहित अवलोकन यहाँ अतिशय उपयोगी हैं। हम इनके मात्र भावार्थ को दे रहे हैं. “आत्मा को परभाव के त्याग का कर्तृत्व है वह नाममात्र है । वह स्वयं तो ज्ञानस्वभाव है। परद्रव्य को पर जाना, और फिर परभाव का ग्रहण न करना वही त्याग है । इसप्रकार स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव त्याग नहीं है। I जबतक परवस्तु को भूल से अपनी समझता है, तभी तक ममत्व रहता है; और जब यथार्थ ज्ञान होने से परवस्तु को दूसरे की जानता है, तब दूसरे की वस्तु में ममत्व कैसे रहेगा? अर्थात् नहीं रहे यह प्रसिद्ध है ।" [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/290]

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