Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 289
________________ चूलिका अधिकार २९९ सरलार्थ :- जिसके विद्यमान न होनेपर सब अंधकार है अर्थात् सब ज्ञेय ज्ञात नहीं होते और विद्यमान होनेपर सब उद्योतरूप है अर्थात् लोकालोक में व्याप्त अनंततानंत ज्ञेय युगपत / एकसाथ विशदरूप से ज्ञात होते हैं; इतना ही नहीं अंधकार भी उद्योतरूप से परिणत हो जाता है अर्थात् अंधकार भी अंधकाररूप से जानने में आता है, वह आत्मा की परमज्योति अर्थात् केवलज्ञान है । भावार्थ :- श्लोक क्रमांक ४८९ में शक्तिरूप परम ज्योति की चर्चा है और इस श्लोक में व्यक्तरूप परम ज्योति अर्थात् केवलज्ञान का कथन किया है। केवलज्ञान की विशेष महिमा जिनवाणी में यत्र-तत्र - सर्वत्र है । केवलज्ञान ही जिनधर्म का मूल है । केवलज्ञान को छोड दिया जाय तो न जिनधर्म रहेगा और न जिनवाणी / शास्त्र | प्रवचनसार में गाथा २१ से ५२ पर्यंत ज्ञानाधिकार है, इसे जयसेनाचार्य ने सर्वज्ञसिद्धि अधिकार कहा है । केवलज्ञान के विशेष स्वरूप को समझने के लिये प्रवचनसार गाथा ३७ से ३९ टीका सहित अवश्य देखें। आचार्य अमृतचंद्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के मंगलाचरण में भी केवलज्ञान को परम ज्योति कहा है और तत्त्वार्थसार में प्रत्येक अध्याय के मंगलाचरण में ज्ञान को ज्योति की ही उपमा दी है । सब द्रव्य स्वस्वभाव में स्थित है - सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभाव-व्यवस्थिताः । न शक्यन्तेऽन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन ।। ५०२ ।। अन्वय : - सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभाव - व्यवस्थिताः (सन्ति), ते परेण कदाचन अन्यथा कर्तुं न शक्यन्ते । सरलार्थ :- (जाति की अपेक्षा जीवादि छह द्रव्य और संख्या की अपेक्षा अनंतानंत) सब द्रव्य स्वभाव से अपने-अपने स्वभाव अर्थात् स्वरूप में सदा स्थित रहते हैं; वे सभी द्रव्य पर के द्वारा कभी अन्यथारूप नहीं किये जा सकते। भावार्थ :- प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में स्थित है - यह वस्तु-व्यवस्था का अटल नियम इस श्लोक में बताया है । यह वस्तुस्थिति यदि जीव समझ लें तो वह दुःखी कैसे हो सकता है? उसे कौन दुःखी कर सकता है? जीव का स्वभाव जानना है, अतः जीव हमेशा मात्र जानने का ही काम करेगा; अन्य किसी भी द्रव्य में परिवर्तन / फेरफार करने का उसका काम ही नहीं है । पुद्गलादि का भी अपना-अपना स्वभाव है । वे सर्व अपने-अपने स्वभाव में ही रहते हैं और जीव उनका जाननहार होने से उनको मात्र जानता है। धर्म प्रगट करने के लिए तो इतना ही समझना है और कुछ करना नहीं है । प्रवचनसार गाथा ९८ की टीका में यह विषय आया है उसका अत्यावश्यक अंश निम्नप्रकार है - वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यांतर की उत्पत्ति नहीं होती; क्योंकि सर्वद्रव्य स्वभावसिद्ध है । (उनकी ) [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/299 ]

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