Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 297
________________ चूलिका अधिकार ३०७ कभी अपने ज्ञाता स्वभाव को छोड़कर क्रोधादिस्वभावमय नहीं होता; क्योंकि स्वभाव का अभाव होना अशक्य है। कर्मोदय के निमित्त से और अनादि कषायरहित अपनी शुद्धस्वभाव का स्वीकार न करने से जीव की पर्याय में क्रोधादि कषायें उत्पन्न होती हई देखी जाती हैं। तथापि जब जीव अपने त्रिकाली स्वभाव का ज्ञान-श्रद्धान करता है, तब पहले तो विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व छूटता है। तदनंतर स्वभाव के यथार्थ श्रद्धान के साथ अपनी आत्ममग्नता - शुद्धोपयोगरूप पुरुषार्थपूर्वक क्रम-क्रम से कषायें भी छूट जाती हैं। __ अग्नि के निमित्त से पानी कितना भी गरम हो; तथापि वही गरम पानी अग्नि के अभाव में स्वयं स्वभाव से शीतल होता है, उसीप्रकार जीव अज्ञानवश कषायरूप परिणत होता आया है; लेकिन जब स्वरूप का भान होता है अर्थात् आत्मस्वभाव का ज्ञान होता है तो क्रोधादि अज्ञानरूप परिणति सहज छूट जाती है। इसी अध्याय के श्लोक क्रमांक ५०२ व ५०३ में सब द्रव्य एवं आत्मा भी सदा अपने स्वभाव में स्थित रहते हैं, ऐसा कहा है। अतः जीव का स्वभाव कभी कषायादिरूप नहीं होता, यह बात सत्य है। कर्ता जीव निराकर्ता बनता है - ___ यः कर्म मन्यते कर्माकर्म वाकर्म सर्वथा। स सर्वकर्मणां कर्ता निराकर्ता च जायते ।।५१५।। अन्वय : - यः (जीव:) कर्म सर्वथा कर्म मन्यते वा अकर्म (सर्वथा) अकर्म (मन्यते); सः (जीवः) सर्वकर्मणां कर्ता (भवन् अपि) निराकर्ता च जायते। सरलार्थ :- जो कर्म को सर्वथा कर्म के रूप में और अकर्म को सर्वथा अकर्म के रूप में मानता है, वह सर्व कर्मों का कर्ता होते हुए भी (एक दिन) उन कर्मों का निराकर्ता अर्थात् अकर्ता (ज्ञाता) होता है। भावार्थ :- जो जीव क्रोधादि भावकों को एवं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों को वे जैसे हैं, वैसे ही वास्तविक यथार्थरूप से जड़-अचेतन कर्म ही मानता है । उसीतरह इन भाव-द्रव्यकर्मों से रहित जो जीवादि अकर्मरूप पदार्थ हैं, उनको भी उनके स्वरूप के अनुसार यथार्थरूप से अकर्म ही मानता है - अन्यथा नहीं मानता। वह जीव अपने पर्व जीवन में अज्ञान से सर्व कर्मों का कर्ता होते हए भी एक दिन उनका निराकर्ता अर्थात् कर्तापने को छोड़नेवाला अकर्ता या ज्ञाता हो जाता है, मोक्षमार्गी हो जाता है। अज्ञानी जीव ही ज्ञानी बन जाता है, अधार्मिक जीव ही धार्मिक बन जाता है, मोक्षमार्ग का विराधक जीव ही मोक्षमार्ग का साधक बन जाता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि अबतक जो सिद्ध हो गये हैं, वे सभी भूतकाल में संसारी थे तथा अब जो संसारी हैं उनमें से अनेक संसारी जीव [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/307]

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