Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 295
________________ चूलिका अधिकार ३०५ सर्वोत्तम रीति से बोध दिया है। मनुष्य जीवन में साधक मुनिराज हो, व्रती श्रावक हो, सम्यग्दृष्टी हो अथवा कोई साधारण मनुष्य हो, वह जब-जब बात करेगा तो निमित्त को प्रधान करके करेगा । लोकव्यवहार ऐसा ही चलता है और चलेगा। यदि तात्त्विक निर्णय न हो तो वचन - व्यवहार जैसा होता है / चलता है वैसा ही वास्तविक स्वरूप भी मान लिया जाता है तो जीवन दुःखमय हो जाता है । अतः वस्तुस्वरूप का यथार्थ निर्णय करना चाहिए । निमित्त से ही कार्य होता है - ऐसी धारणा तथा श्रद्धा हो तो परद्रव्यों के ही दोष देखने में आयेंगे। कभी सामनेवाले मनुष्य का दोष, कभी पुद्गल का दोष, कभी ज्ञानावरणादि कर्म की गलती, कभी काल ही प्रतिकूल है, कभी शरीर ही प्रतिकूल है, मैं क्या करूँ? कभी समझानेवाला ही नहीं मिला, हम कैसे ज्ञान करेंगे? इत्यादिरूप से दूसरों की ही कमी दिखाई देती है। परंतु जब कार्य उपादान से होता है, तब अन्य द्रव्य की पर्याय उपस्थित रहती है - ऐसा सम्यग्ज्ञान होने पर जीवन की दिशा बदलती है । जीवन की दिशा और दशा बदले - ऐसा उपदेश यहाँ ग्रंथकार उदाहरण सहित दे रहे हैं । घटरूप कार्य में मिट्टी ही मूल है, जब मिट्टी में घटरूप परिणमन की पर्यायगत पात्रता हो तो वहाँ दण्ड, चक्र, कुम्भकार आदि अनुकूल निमित्तरूप संयोग मिल ही जाते हैं। अनेक बार यह प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि दण्ड चक्र, कुम्भकार तो है और मिट्टी प्रतिकूल अर्थात् रेतीली हो तो घट नहीं बनता । जब मिट्टी अनुकूल हो तब दण्डादि सामग्री को निमित्त कहने का व्यवहार होता है । जो द्रव्य कार्यरूप से परिणत होता है, उसे उपादान कहते हैं । जब कोई भी द्रव्य अपनी पात्रतानुसार कार्यरूप परिणत हो जाता है, उस समय अन्य परद्रव्य की अनुकूल पर्यायों को निमित्त कहते हैं; यह वस्तु की सहज अनादि से व्यवस्था है । उपादान-निमित्त का यथार्थ ज्ञान करने के लिये पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित 'निमित्तोपादान' पुस्तक का अध्ययन जरूर करें, साथ ही 'मूल में भूल' पुस्तक को पढ़ना भी भूलें । कर्मबंध का उपादान कारण - कालुष्यं कर्मणो ज्ञेयं सदोपादानकारणम् । मृद्द्रव्यमिव कुम्भस्य जायमानस्य योगिभिः । । ५१२ ।। अन्वय : - ( यथा) जायमानस्य कुम्भस्य मृद्द्रव्यं इव कर्मणः उपादानकारणं कालुष्यं ( अस्ति इति) योगिभिः सदा ज्ञेयम् । सरलार्थ :- जिसप्रकार मिट्टी से उत्पन्न होनेवाले घट का उपादान कारण मिट्टीरूप पुद्गल द्रव्य है, उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म का उपादान कारण मिथ्यात्व - अविरति आदिरूप कलुषता है; यह विषय योगियों को सदा जानना चाहिए। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/305]

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