Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ ३१२ योगसार-प्राभृत भावार्थ :- द्रव्य एवं भाव से इंद्रिय-विषयों का त्याग करने पर वीतराग स्वरूप सच्चा धर्म प्रगट होता है और जीव हमेशा के लिये सुखी होता है । इसीतरह जो साधक २८ मूलगुणरूप मुनि का द्रव्यलिंगपना एवं तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक भावलिंगपना प्रगट करते हैं तो वे हमेशा के लिये सिद्ध बनकर अनंत-अव्याबाध सुखरूप हो जाते हैं। भोग के सन्दर्भ में रागी एवं विरागी का स्वरूप - रागी भोगमभुजानो बध्यते कर्मभिः स्फुटम् । विरागः कर्मभिर्भोगंभुञ्जानोऽपि न बध्यते ॥५२४।। अन्वय : - रागी भोगं अभुजानः (अपि) कर्मभिः बध्यते; (च) विरागः भोगं भुञ्जानः अपि कर्मभिः न बध्यते (एतत् तु) स्फुटं (अस्ति)। सरलार्थ :- जो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित रागी जीव है वह अज्ञानी भोग को न भोगता हुआ भी सदा ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से बंधता है और जो मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी कषाय रहित किंचित्/अल्प वीतरागी है, वह ज्ञानी श्रावक भोग को भोगता हुआ भी ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से नहीं बंधता, यह सुनिश्चित है। ___भावार्थ :- अध्यात्मशास्त्रों में मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषाय से होनेवाले कर्मों के बंध को ही मुख्यरूप से बन्ध माना जाता है, अन्य मोह परिणामों से होनेवाला कर्मबंध अनंत संसार का कारण न होने से उसे बंध ही नहीं माना जाता । इस विवक्षा को ध्यान में रखते हुए इस श्लोक का अर्थ समझना चाहिए। पूर्ण वीतरागी को तो बंध होता ही नहीं। जो श्रावक एक या दो कषाय चौकड़ी के अभाव से अल्प वीतरागी हो गये हैं और पूर्व पुण्योदय से सहज प्राप्त न्याय भोगों को भोगते हैं तो उन्हें भी बंध नहीं होता, ऐसा यहाँ कहना है। प्रश्न :- आपने श्रावक को लिया, भोग भोगते हुए मुनिराज को क्यों नहीं लिया? उत्तर :- भोग भोगने का कार्य मुख्यता से श्रावक के जीवन में ही होता है; मुनिराज के जीवन में भोग का अभाव ही होता है; इसलिए हमने भोग भोगते हुए श्रावक को लिया है। यहाँ भोग का अर्थ पाँचों इंद्रियों के विषयों को लेना है, मात्र स्पर्शजन्य भोग की बात नहीं, जिसका मुनि जीवन में अभाव ही वर्तता है। स्पर्शादि विषयों को जानने से कर्मबंध नहीं - विषयं पञ्चधा ज्ञानी बुध्यमानो न बध्यते । त्रिलोकं केवली किं न जानानो बध्यतेऽन्यथा ।।५२५।। अन्वय : - ज्ञानी पञ्चधा विषयं बुध्यमानः (अपि) न बध्यते, अन्यथा त्रिलोकं जानान: केवली किं न बध्यते? सरलार्थ :- ज्ञानी पाँच प्रकार के इन्द्रिय विषयों (स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द) को जानते हुए [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/312]

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319