Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 290
________________ योगसार-प्राभृत ३०० स्वभाव - सिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है; क्योंकि अनादिनिधन साधनान्तर ( अन्य साधन) की अपेक्षा नहीं रखता ।' आत्मा भी अपने स्वभाव में स्थित - नान्यथा शक्यते कर्तुं मिलद्भिरिव निर्मलः । आत्माकाशमिवामूर्तः परद्रव्यैरनश्वरः । । ५०३ ।। अन्वय : - आकाशं इव निर्मल: अमूर्त: अनश्वरः आत्मा मिलद्भिः परद्रव्यैः इव अन्यथा कर्तुं न शक्यते । सरलार्थ :- जिसप्रकार आकाशद्रव्य स्वभाव से निर्मल, अमूर्त तथा अविनश्वर है, वह उसमें अवगाहन प्राप्त करनेवाले जीवादि अनंतानंत परद्रव्यों के द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार स्वभाव से निर्मल, अमूर्तिक अविनश्वर आत्मा उसके एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध में आनेवाले अनंतानंत परद्रव्यों के द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता - वह सदैव ज्ञानस्वभावी ही रहता है । : भावार्थ • श्लोक क्रमांक ५०२ में ग्रंथकार ने जिनागम का सामान्य नियम बताया है कि सर्वद्रव्य अपने-अपने स्वभाव में ही रहते हैं और श्लोक ५०३ में उस सामान्य नियम को आत्मा पर लागू करके आत्मा भी अपने स्वभाव में स्थित रहता है, ऐसा कहकर आगम का मूल प्रयोजन अध्यात्म को बताया है । विषय को स्पष्ट करने के लिये आकाश का दृष्टान्त दिया है। हम प्रत्यक्ष में भी देख सकते हैं कि आकाश में जलती हुई अग्नि कभी आकाश को जला नहीं सकती। प्रश्न : अग्नि अनेक पदार्थों का जलाती हुई हम प्रत्यक्ष में देखते हैं । उत्तर : • भाई! आप थोड़ा शांत चित्त से विचार करो । आकाश के उदाहरण से विषय स्पष्ट न होता हो तो हम अभ्रक अथवा राख आपके हाथ में देते हैं। उसे आप आग में डालकर परीक्षा करो। अभ्रक अथवा राख नहीं जलेगा। जो पदार्थ स्वयं जलने योग्य है वही जलता है और अग्नि को उसमें निमित्त कहा जाता है । इससे यह विषय अति स्पष्ट है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में स्थित है, कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। इसलिए आत्मा के संयोग में सभी द्रव्य आते हैं, तथापि आत्मा के स्वभाव को कोई द्रव्य अन्यथारूप न कर पाया है, न कर रहा है और न कर पायेगा । इस वस्तु स्वरूप को जानना और श्रद्धान करना अत्यावश्यक है। देह और आत्मा की सकारण भिन्नता - देहात्मनोः सदा भेदो भिन्नज्ञानोपलम्भतः । इन्द्रियैर्ज्ञायते देहो नूनमात्मा स्वसंविदा ||५०४।। अन्वय : - भिन्नज्ञानोपलम्भतः देह- आत्मनोः सदा भेदः (भवति) । देह: इन्द्रियै: ( ज्ञायते) आत्मा (च) नूनं स्वसंविदा ( ज्ञायते ) । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/300 ]

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