Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 287
________________ चूलिका अधिकार २९७ मोह-राग-द्वेष, चार शब्दों में कहना हो तो क्रोधादि चार कषाय अधिक विस्तार से कथन करना हो तो मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी आदि १६ कषाय और हास्यादि नौ नोकषाय कह सकते हैं। ___जैसे-जैसे मिथ्यात्वादि परिणामों का अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे नया कर्म का भी बंध रुकता जाता है; जो करणानुयोग के शास्त्र गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि से जानने योग्य है। कालुष्य और कर्म इन दोनों में से किसी एक का अभाव हो जाने से दोनों का अभाव हो जाता है, इसका स्पष्ट अर्थ यह हो गया कि इनमें कर्ता-कर्म-संबंध नहीं है मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। निमित्त-नैमित्तिक संबंध में काल की प्रत्यासति/नजदीकता होती है अर्थात् निमित्त और नैमित्तिक का काल एक ही होता है। कषाय के अभाव से शुद्धि/वीतरागता की वृद्धि - यदास्ति कल्मषाभावो जीवस्य परिणामिनः । परिणामास्तदा शुद्धाः स्वर्णस्येवोत्तरोत्तराः ।।४९८।। अन्वय:- यदा परिणामिनः जीवस्य कल्मषाभावः अस्ति, तदा (तस्य जीवस्य) परिणामाः सुवर्णस्य इव उत्तरोत्तराः शुद्धाः (जायन्ते)। सरलार्थ :- जिस समय परिणमनस्वभावी संसारी साधक जीव के मोह-राग-द्वेषरूप कलुषता का यथागुणस्थान अभाव हो जाता है, उस समय उस जीव के वीतरागरूप धर्मपरिणाम उत्तरोत्तर सुवर्ण के समान शुद्ध होते चले जाते हैं। भावार्थ :- अशुद्ध सुवर्ण अग्नि में डालकर तपाये जाने पर जैसे-जैसे अधिक-अधिक तपाया जाता है; वैसे-वैसे स्वभावतः उत्तरोत्तर शुद्ध होता जाता है। वैसे ही प्रतिसमय नयी-नयी पर्यायरूप से परिणमन करने का जिसका स्वभाव है, ऐसा संसारी साधक अर्थात् मोक्षमार्गस्थ जीव त्रिकाली निज शुद्ध आत्मा का जैसा-जैसा आश्रयरूप पुरुषार्थ अधिक-अधिक करता जाता है; वैसी-वैसी उस मात्रा में मोक्षमार्गस्थ साधक जीव की शुद्धता/वीतरागता बढ़ती जाती है। उससे पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा भी गुणस्थानानुसार होती रहती है, जोकि स्वाभाविक है। कषाय के अभाव से सिद्धदशा की प्राप्ति - कल्मषाभावतो जीवो निर्विकारो विनिश्चलः। निर्वात-निस्तरङ्गाब्धि-समानत्वं प्रपद्यते ।।४९९।। अन्वय : - कल्मषाभावतः जीवः निर्वात-निस्तरङ्गाब्धि-समानत्वं निर्विकारः विनिश्चलः प्रपद्यते। __ सरलार्थ :- जिसप्रकार वायु तथा तरंग के अभाव से समुद्र-निर्विकार तथा निश्चल/स्थिर होता है; उसीप्रकार मिथ्यात्व एवं कषायरूप कल्मष के अभाव से मोक्षमार्गस्थ आत्मा निर्विकार एवं निश्चल होता है अर्थात् सिद्धपरमात्मा हो जाता है। भावार्थ :- सिद्ध परमात्मा बनने का उपाय कषायों का अभाव करना ही है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/297]

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319