Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 285
________________ चूलिका अधिकार २९५ अन्वय :- घनादिजाः (विकाराः) शाश्वत्-शुद्ध-स्वभावस्य सूर्यस्य इव कार्मणाः स्थावराः विकारा: ते अपि आत्मनः न सन्ति । सरलार्थ :- जिसप्रकार आकाश में मेघ आदि के निमित्त से सूर्य के प्रकाश में उत्पन्न होनेवाले भिन्न-भिन्न आकाररूप विकार, अनादि से शुद्ध स्वभावरूप सूर्य के नहीं हो सकते अर्थात् मेघजन्य विकार और सूर्य दोनों एक-दूसरे से भिन्न ही रहते हैं; उसीप्रकार नामकर्म के उदय के निमित्त से पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पतिरूप एकेंद्रिय जीवों का स्थावररूप आकार शुद्ध स्वभावरूप जीव नहीं हो सकते अर्थात् स्थावररूप आकार और शुद्ध जीव दोनों एक-दूसरे से भिन्न ही हैं । भावार्थ :- नामकर्म के निमित्त से निर्मित स्थावर आकार से त्रिकाल शुद्ध जीव को यहाँ भिन्न बताया है; क्योंकि कर्म के निमित्त से होनेवाली अवस्था का संबंध कर्म के उदय के साथ है, जीव के सहज स्वभाव के साथ नहीं । समयसार गाथा ६५, ६६ इन गाथाओं की टीका और ३८, ३९ कलशों का भाव ग्रंथकार ने इस श्लोक में बताया है । अतः समयसार का उक्त अंश पाठक जरूर देखें । मोहकर्मजन्य रागादि भावों से आत्मा सदा भिन्न - - रागादयः परीणामाः कल्मषोपाधिसंभवाः । जीवस्य स्फटिकस्येव पुष्पोपाधिभवा मताः ।। ४९४।। अन्वय :- पुष्पोपाधिभवाः स्फटिकस्य (परिणामाः) इव जीवस्य रागादयः परीणामाः कल्मषोपाधिसंभवा: मताः । सरलार्थ : - जिसप्रकार पुष्पों की उपाधि / निमित्त से स्फटिक के अनेक प्रकार के रंगादिरूप परिणाम/अवस्थाएँ होती हैं; उसीप्रकार मोहनीयकर्म के निमित्त से जीव के क्रोध-मान-मायालोभादिरूप रागादि परिणाम होते हैं । -- भावार्थ :- रागादि परिणाम जीवकृत नहीं है, जीव का सहजस्वभाव नहीं है। अतः आत्मा रागादि परिणामों से भिन्न है । रागादि परिणाम मोहकर्म के निमित्त से होते हैं । यदि मोह कर्म का निमित्त न हो तो वे नहीं होते; इस अपेक्षा की मुख्यता करके इस श्लोक में जीव को रागादि से भिन्न बताया है; जो अध्यात्म की अपेक्षा सत्य ही है । समयसार शास्त्र की गाथा ६८ एवं उसकी टीका तथा भावार्थ को पाठक सूक्ष्मता से पढ़ेंगे तो यह विषय और स्पष्ट होगा । कषाय परिणाम का कर्ता कर्म है - परिणामाः कषायाद्या निमित्तीकृत्य चेतनाम् । मृत्पिण्डेनेव कुम्भाद्यो जन्यन्ते कर्मणाखिलाः । । ४९५ ।। अन्वय :- · मृत्पिण्डेन कुम्भाद्याः इव चेतनां निमित्तकृत्य अखिलाः कषायाद्या: परिणामाः कर्मणा जन्यन्ते । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/295]

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