Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 282
________________ २९२ योगसार-प्राभृत ज्ञान की ही महिमा गाई है; जो पाठकों को एक बार तो जरूर देखना चाहिए। समयसार कलश ५९ व ६० के अर्थ भी मननीय है। ___आत्मा का ज्ञान एक ऐसा अलौकिक गुण है, जिसके आधार/आश्रय से जीव धर्म को समझ सकता है, धर्म को प्रगट करने का पुरुषार्थ कर सकता है, धर्म को पूर्ण कर सकता है और पूर्ण प्रगट हुए धर्म को वैसा का वैसा अनन्तकाल पर्यंत स्थिर रख सकता है। धवला टीका में वीरसेन आचार्य ने मिथ्यादृष्टि के ज्ञान (निरपेक्ष मात्र ज्ञान) को भी मंगल कहा है। (धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७ से ३९)।। तत्त्वचिंतकों का अलौकिक ध्येय तत्त्व - विकारा निर्विकारत्वं यत्र गच्छन्ति चिन्तिते । तत् तत्त्वं तत्त्वतश्चिन्त्यं चिन्तान्तर-निराशिभिः ।।४८८।। अन्वय :- यत्र चिन्तिते विकारा: निर्विकारत्वं गच्छन्ति तत् तत्त्वं तत्त्वत: चिन्तान्तरनिराशिभिः चिन्त्यं (भवति)। सरलार्थ :- जिस (निज भगवान आत्मा) का चिन्तन/ध्यान करने पर विकार निर्विकारता को प्राप्त हो जाते हैं (वीतरागमय धर्म प्रगट हो जाता है), उस (चिन्तनयोग्य ध्येय) तत्त्व का अन्य चिन्ताओं से निरिच्छ पुरुषों को वास्तविक चिन्तन करना चाहिए। भावार्थ :- विकार अर्थात् रागद्वेषमय भाव जीव का दुःखदायक विभाव परिणाम है। इस श्लोक में क्रोधादि विकारों के अभाव का परम सत्य उपाय ध्येयस्वरूप आत्मा का चिन्तन/ध्यान बताया है, जिसके लिये प्रत्येक जीव सर्वथा स्वाधीन है; क्योंकि प्रत्येक जीव का अनादि शुद्ध स्वरूप उसके लिये ध्येय है। चिंतक/ध्याता जब ध्येयरूप निजभगवान आत्मा का ध्यान करता है, तब उसके विकार सहज विगलित/नष्ट हो जाते हैं - वीतरागभाव प्रगट होता है। इस प्रगट होनेवाले वीतराग भाव को धर्म, संवर, मोक्षमार्ग इत्यादि शब्दों से शास्त्र में कहा गया है। ___ आचार्य कुंदकुंद ने अष्टपाहुड-मोक्षपाहुड की गाथा १०३ में भी इस अलौकिक तत्त्व को स्पष्ट बताया है, उसका भाव इसप्रकार है - लोक में नमस्कार करने योग्य इंद्रादि हैं, उनसे भी नमस्कार करने योग्य, ध्यान करने योग्य और स्तुति करने योग्य जो तीर्थंकरादि हैं; उनसे भी स्तुति करने योग्य है, ऐसा कुछ है, वह इस देह में ही स्थित (जो त्रिकाली शुद्ध निज भगवान आत्मा) है, उसको यथार्थ जानो। निज परम तत्त्व एकही उपादेय विविक्तमान्तरं ज्योतिर्निराबाधमनामयम् । यदेतत् तत्परं तत्त्वं तस्यापरमुपद्रवः ।।४८९।। अन्वय :- यत् एतत् विविक्तं निराबाधं (च) अनामयं आन्तरं ज्योतिः (अस्ति), तत् परं तत्त्वं (अस्ति) । तस्य अपरं (सर्वं) उपद्रवः। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/292 ]

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