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व्यवहारत: अन्यस्य भावस्य कर्ता (अस्ति) ।
सरलार्थ : :- आत्मा निश्चय से अपने शुभ तथा अशुभ भाव / परिणाम का कर्ता है और व्यवहार से पर द्रव्य के भाव का कर्ता है।
भावार्थ :- • यहाँ शुभाशुभभाव का कर्ता आत्मा को कहना, यह अशुद्धनिश्चयनय अथवा उपचरित सद्भूत व्यवहारनय का कथन समझना और आत्मा को परद्रव्य का कर्ता कहना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का कथन समझना चाहिए ।
योगसार प्राभृत
कर्ता-कर्म के सम्बन्ध में जिनवाणी में विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं, जैसे - १. प्रत्येक द्रव्य अपने में उत्पन्न होनेवाली पर्याय का कर्ता है । २. प्रत्येक गुण अपने में होनेवाले परिणमन का कर्ता है । ३. आत्मा अपने में उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारी भावों का कर्ता
। ४. ज्ञानी आत्मा अपने वीतरागी परिणमन का कर्ता है । ५. वीतराग परिणाम अपने काल में स्वतंत्र उत्पन्न होता है । ६. पर्याय न द्रव्य से होती है न गुण में से उत्पन्न होती है, परंतु पर्याय अपने ही षट्कारक के कारण अपने काल में स्वतंत्र होती है । ७. व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा परद्रव्य के परिणमन का भी कर्ता कहलाता है।
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इन सब अपेक्षाओं को यथास्थान - यथायोग्य समझकर अपने में ज्ञाताभाव / वीतरागभाव प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए।
जीव - परिणाम व कर्मोदय में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध -
श्रित्वा जीव - परीणामं कर्मास्रवति
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श्रित्वोदेति परीणामो दारुणः कर्म दारुणम् ।।११८।।
अन्वय :
जीव- परीणामं श्रित्वा दारुणं कर्म आस्रवति, (च) दारुणं कर्म श्रित्वा दारुणः परीणाम: उदेति ।
सरलार्थ :- जीव के परिणामों का आश्रय करके अत्यंत भयंकर अर्थात् अतिदुःखद कर्म आस्रव को प्राप्त होते हैं और अत्यंत भयंकर दुःखद कर्मों के उदय का आश्रय करके जीव के भी अत्यंत दुःखद परिणाम उदित होते हैं।
भावार्थ :यहाँ आश्रय शब्द का अर्थ निमित्त है। जीव के परिणाम व कर्मों का परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को ही इस श्लोक में स्पष्ट किया है।
जीव के मोह-राग-द्वेषादि विभाव परिणामों का निमित्त पाकर दुःखद कर्मों का आस्रव होता है और दुःखद कर्मों के उदय के निमित्त से जीव के दुःखद परिणामों का उदय होता है।
जो पदार्थ स्वयं कार्यरूप तो न परिणमे, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप
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