Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 270
________________ २८० योगसार-प्राभृत अन्वय :- यथा निर्मले चन्द्रे सदा स्थिता निर्मला कान्तिः तस्य प्रकृतिः, मेघादिजनितावृतिः (तस्य) विकृतिः। तथा विशदे आत्मनि सदा स्थिता विशदा ज्ञप्तिः तस्य प्रकृतिः, कर्माष्टककृतावृतिः (तस्य) विकृतिः। सरलार्थ :- जिसप्रकार निर्मल चन्द्रमा में सदा विद्यमान निर्मल कान्ति उसकी प्रकृति/स्वभाव है और मेघादिजनित आवृति/आवरण उसकी विकृति/विभाव है। उसीप्रकार निर्मल आत्मा में सदा विद्यमान निर्मल ज्ञप्ति/जाननरूप कार्य उसकी प्रकृति/स्वभाव है और आठ कर्मों की आवृति/आवरण उसकी विकृति/विभाव है। भावार्थ :- जिसप्रकार चन्द्रमा की निर्मल कान्ति उसका मूल स्वभाव है और उस पर मेघादि का आवरण आने पर जो मलिनता आती है, वह विभाव है। उसीप्रकार आत्मा का जानना-देखना मूल स्वभाव है और आठ कर्मों के निमित्त से जो मोह-राग-द्वेषादि की मलिनता उत्पन्न होती है, वह विभाव परिणमन है। जैसे चन्द्रमा पर मेघों का आवरण आने पर भी उसकी कान्ति सदैव विद्यमान रहती है, वैसे ही आठ कर्मों से आवृत्त होने पर भी आत्मा का निर्मल ज्ञान-दर्शनरूप स्वभाव सदैव विद्यमान रहता है। निमित्त के अभाव से नैमित्तिकभाव का अभाव - जीमूतापगमे चन्द्रे यथा स्फुटति चन्द्रिका। दुरितापगमे शुद्धा तथैव ज्ञप्तिरात्मनि ।।४६४।। अन्वय :- यथा जीमूतापगमे चन्द्रे चन्द्रिका स्फुटति तथा एव दुरितापगमे आत्मनि शुद्धा ज्ञप्तिः (स्फुटति)। सरलार्थ :- जिसप्रकार मेघों का आवरण निकल जाने पर निर्मल चंद्रमा में निर्मल चाँदनी स्फुटित/व्यक्त हो जाती है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादि आवरण कर्म निकल जाने पर निर्मल आत्मा में मात्र जाननरूप ज्ञप्ति/केवलज्ञानरूप ज्योति स्फुटित/व्यक्त हो जाती है। भावार्थ :- उपरिम तीन श्लोकों में उदाहरण सहित यह विषय स्पष्ट किया गया है कि किसी भी द्रव्य/वस्तु के मूल स्वभाव का कभी नाश नहीं होता और जो द्रव्य में विभाव/विकार होता हुआ जानने-देखने में आता है उसके लिये कोई ना कोई पर पदार्थ की पर्याय ही निमित्तस्वरूप रहती है। किसी भी द्रव्य में विभावरूप पर्याय स्वयमेव अपने में से नहीं होती। निमित्त की उपस्थिति में द्रव्य वैभाविक शक्ति की पर्यायगत योग्यता से अपने आप विभावरूप परिणमित होता है। द्रव्य में निमित्त विभाव उत्पन्न करता है, ऐसा भी नहीं। समयसार गाथा २७८, २७९ में आचार्य कुंदकुंद ने और इन गाथाओं की टीका एवं कलश १७४ में आचार्य अमृतचंद्र ने इस अलौकिक विषय को स्पष्ट किया है। इन दोनों आचार्यों ने इस [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/280]

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