Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 275
________________ चूलिका अधिकार २८५ यह महान रोग आत्मा के साथ अनादि-सम्बन्ध को प्राप्त है, अप्रधान है, बहुत कर्मों के बन्ध का कर्ता है और सर्व प्राणियों को ऐसा ही आत्मा अनुभव में आता रहता है, अत: यथा-अनुभवसिद्ध है। भावार्थ:-ग्रंथकार आचार्य अमितगति पाठकों को संसार के सत्यस्वरूप का ज्ञान कराते हुए संसार से पाठकों को विरक्त करने के लिये प्रेरणा दे रहे हैं। वास्तविक देखा जाय तो विरक्तभाव के बिना जीव को अध्यात्म का सच्चा आनंद भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए साधक को साधना के लिए ज्ञान एवं वैराग्य परिणाम आवश्यक है। सिद्ध जीव पुनः संसारी नहीं हो सकता - सर्वजन्मविकाराणामभावे तस्य तत्त्वतः। न मुक्तो जायतेऽमुक्तोऽमुख्योऽज्ञानमयस्तथा।।४७४।। अन्वय :- तस्य (आत्मनः) तत्त्वत: सर्वजन्मविकाराणां अभावे (सति; य: जीव:) मुक्तः (भवति; सः) अमुक्तः अमुख्यः तथा अज्ञानमयः न जायते । सरलार्थ :- आत्मा के सर्व संसार-विकारों का वस्तुतः अभाव हो जाने पर जो जीव मुक्त अर्थात् सिद्ध आत्मा हो जाता है, वह परमात्मा फिर कभी अमुक्त अर्थात् संसार पर्याय का धारक संसारीजीव नहीं होता, न साधारण प्राणी बनता है और न अज्ञानरूप ही परिणत होता है। भावार्थ :- संसारी जीव के जब भवजन्य विकारों का संपूर्ण अभाव हो जाता है, तब वह सिद्ध परमात्मा हो जाता है। ऐसा मुक्त जीव पुनः विकार सहित होकर संसारी नहीं बनता। इस श्लोक से अवतारवाद का निषेध हो जाता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो अवतार लेते हैं, वे सिद्ध नहीं हुए थे। संसार में ही देव गति में गये थे, वहाँ से मनुष्य-जन्म में आये हैं। स्वर्ग को अज्ञान से कुछ लोग मुक्त जीवों का स्थान मानते हैं। जिनधर्म के प्रथमानुयोग के ग्रंथों में हजारों कहानियाँ हैं, उनमें परभव की घटनाएँ तो आयी हैं, लेकिन कोई भी कहानी ऐसी नहीं है, जिसमें मुक्त जीव ने अवतार लिया हो। सिद्ध संसारी नहीं होते, इसका सोदाहरण समर्थन - यथेहामयमुक्तस्य नामयः स्वस्थता परम् । तथा पातकमुक्तस्य न भवः स्वस्थता परम् ।।४७५।। अन्वय :- यथा इह आमयमुक्तस्य आमय: न (वर्तते) परं स्वस्थता (जायते)। तथा पातकमुक्तस्य भवः (संसारः) न (अवतिष्ठते) परं स्वस्थता (जायते)। सरलार्थ :- जिसप्रकार इस लोक संसार में जो मनुष्य रोग से रहित हो गया है, उसके रोग नहीं रहता; वह परम स्वस्थता को ही प्राप्त हो जाता है। उसीप्रकार जो पातक अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हो गया है, उसके भव अर्थात् संसार नहीं रहता; वह परम स्वस्थता को प्राप्त हो जाता है अर्थात् मुक्तावस्था में ही अनंत काल तक विद्यमान रहता है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/285]

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