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योगसार-प्राभृत
भावार्थ :- श्लोक में आया हुआ पातक शब्द का सामान्य अर्थ पाप कार्य है। यहाँ तो उसका अर्थ कर्म किया है अर्थात् पाप और पुण्य दोनों कर्मों को एक ही माना है, यह विशेष अर्थ यहाँ समझना आवश्यक है। अर्थात् पुण्य को भी पातक बता दिया है; क्योंकि पुण्य कर्म के नाश के बिना कोई जीव मुक्त नहीं हो सकता। ज्ञानी के भोग संसार के कारण नहीं -
शुद्धज्ञाने मनो नित्यं कार्येऽन्यत्र विचेष्टते ।
यस्य तस्याग्रहाभावान् न भोगा भवहेतवः ।।४७६।। अन्वय :- यस्य मनः नित्यं शुद्ध ज्ञाने वर्तते, अन्यत्र कार्ये विचेष्टते तस्य भोगा: आग्रहअभावात् न भवहेतवः।
सरलार्थ :- जिसका मन अर्थात् व्यक्त/प्रगट ज्ञान सदा शुद्ध ज्ञान में अर्थात् त्रिकाली निज शुद्ध आत्मा में रमा/संलग्न रहता है; अन्य किसी कार्य में जिसकी उपादेय बुद्धि से कोई प्रवृत्ति नहीं होती उसके पंचेंद्रियों के भोग आसक्ति के अभाव में संसार के कारण नहीं होते।
भावार्थ :- जो अपने को मात्र ज्ञाता-दृष्टा मानता है, अन्य औदयिक भावों से अपने को सदा काल भिन्नरूप ही अनुभवता है और अपने व्यक्त ज्ञान को स्वभाव में ही संलग्न रखता है, ऐसा मोक्षमार्गी साधक श्रावक अपनी भूमिका के योग्य पंचेंद्रियों के भोगों में एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व परिणामपूर्वक संलग्न नहीं होता, अतः उसके वे भोग-परिणाम संसार के कारण नहीं बनते ।
समयसार की गाथा १९३, १९६ में तथा इनकी टीका में एवं कलश १३४, १३५, १४६, १४८, १४९ में इस श्लोकगत विषय को विशेष विशदरीति से बताया है, उनका अध्ययन जरूर करें। ज्ञानी भोगों में अनासक्त और अनासक्ति से मोक्ष -
मायाम्भो मन्यतेऽसत्यं तत्त्वतो यो महामनाः। अनुद्विग्नो निराशङ्कस्तन्मध्ये स न गच्छति ।।४७७।। मायातोयोपमा भोगा दृश्यन्ते येन वस्तुतः।
स भुजानोऽपि निःसङ्गःप्रयाति परमं पदम् ।।४७८।। अन्वय :- यः महामना: मायाम्भः तत्त्वत: असत्यं मन्यते सः (तत्प्रति) अनुद्विग्नः निराशङ्कः (अत एव) तन्मध्ये न गच्छति।
येन भोगा: मायातोयोपमा दृश्यन्ते सः वस्तुतः (भोगान्) भुजानः अपि निःसङ्गः (वर्तयन्) परमं पदं प्रयाति।
सरलार्थ :- जिसप्रकार महामना/सम्यग्दृष्टि/ज्ञानी/मोक्षमार्गी जीव मायाजल अर्थात् मृगमरीचिका को वास्तविक रीति से असत्य जानते हैं; अत: वे उससे न उद्विग्न होते हैं, न आकुलित होते हैं और न उसमें रमते हैं।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/286]