Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 272
________________ २८२ योगसार-प्राभृत इसी अधिकार में आगे ग्रंथकार ने श्लोक क्र. ४७० में निर्मल ज्ञान की स्थिरता को ही ध्यान कहा है। ध्यान और योग में कुछ अंतर नहीं है। त्रिकाली निज भगवान आत्मा में वर्तमानकालीन प्रगट ज्ञान को लगाना ही ध्यान है और वही योग है। ___ योग अर्थात् ध्यान के दो कार्य बताये हैं - एक तो त्रिकाली निज भगवान आत्मा को जानना अर्थात् आत्मा में ही आत्मा को लगाये रखना। दूसरा कार्य ज्ञानावरणादि घाति कर्मों का नाश करना। प्रथम कार्य धर्म को प्रगट करनेरूप है और दूसरा कार्य धर्म को पूर्ण करनेरूप है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रारंभ में धर्म प्रगट करना हो तो ध्यान आवश्यक है ही, इतना ही नहीं धर्म की पूर्णता के लिये भी ध्यान ही अनिवार्य है।। ध्यान से उत्पन्न सुख की विशेषता - निरस्त-मन्मथातकं योगजं सुखमुत्तमम् । शमात्मकं स्थिरं स्वस्थं जन्ममृत्युजरापहम् ।।४६७।। अन्वय :- योगजं सुखं उत्तमं निरस्त-मन्मथ-आतङ्क शमात्मकं स्वस्थं स्थिरं (तथा) जन्ममृत्युजरापहम् (अस्ति)। सरलार्थ :- योग से अर्थात् ध्यानजन्य-विविक्तात्म परिज्ञान से उत्पन्न हुआ जो सुख है वह उत्तम, कामदेव के आतंक से/विषय वासना की पीड़ा से रहित, शान्तिस्वरूप, निराकुलतामय, स्थिर, स्वात्मस्थित और जन्म-जरा तथा मृत्यु का विनाशक है। सुख एवं दुःख का संक्षिप्त लक्षण - सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । वदन्तीति समासेन लक्षणं सुख-दुःखयोः ।।४६८।। अन्वय :- परवशं सर्वं दुःखं (अस्ति),आत्मवशं सर्वं सुखं (अस्ति); इति (सर्वज्ञाः) सुख-दुःखयोः लक्षणं समासेन वदन्ति । सरलार्थ :- ‘जो-जो पराधीन है वह सब दुःख है और जो-जो स्वाधीन है वह सब सुख है' इसप्रकार (सर्वज्ञ भगवान) संक्षेप से सुख-दुःख का लक्षण कहते हैं। भावार्थ :- यहाँ संक्षेप में सुख और दुःख - दोनों के लक्षणों का उल्लेख किया गया है, जिनसे वास्तविक सुख-दुःख को सहज ही परखा/पहचाना जा सकता है। जिस सुख की प्राप्ति में थोड़ी-सी भी पराधीनता/पर की अपेक्षा है, वह वास्तव में सुख न होकर दुःख ही है और जिसकी प्राप्ति में कोई पराधीनता/पर की अपेक्षा नहीं, सब कुछ स्वाधीन है, वही सच्चा सुख है। अतः जो इन्द्रियाश्रित सुख कहा अथवा माना जाता है, वह दुःख ही है; यह निर्णय करना चाहिए। सुख के स्वरूप को स्पष्ट और सरल रीति से जानने के लिये प्रवचनसार शास्त्र के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन में गाथा क्रमांक ५३ से ६८ पर्यंत प्रथम अध्याय में सुखाधिकार दिया है, उसे टीका सहित [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/282]

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