Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 268
________________ २७८ योगसार-प्राभृत अन्वय :- तस्य (निर्वृतस्य) चैतन्यं सर्वथा निरर्थकं न ज्ञायते (यतो हि निरर्थकस्य) स्वभावत्वे अस्वभावत्वे विचार-अनुपपत्तितः। सरलार्थ :- मुक्तात्मा का चैतन्य सर्वथा निरर्थक भी ज्ञात नहीं होता; अर्थात् सार्थक ज्ञात होता है; क्योंकि निरर्थक को स्वभाव या अस्वभाव मानने पर चैतन्य की निरर्थकता का विचार नहीं बनता। भावार्थ :- मुक्तात्मा के चैतन्य को सांख्यमतानुयायी सर्वथा निरर्थक बतलाते हैं। वे कहते हैं कि चैतन्य ज्ञेय के ज्ञान से रहित होता है। उसका निषेध करते हुए यहाँ दो विकल्प उपस्थित किये गये हैं - आत्मा का चैतन्य निरर्थक स्वभावरूप है या निरर्थक स्वभावरूप नहीं है? इन दोनों में से किसी की भी मान्यता पर निरर्थकता का विचार नहीं बनता, ऐसा सूचित किया गया है। आत्मा का चैतन्य निरर्थक स्वभावरूप नहीं है, इस द्वितीय विकल्प की मान्यता से तो चैतन्य की स्वभाव से सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और इसलिए आपत्ति के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता । शेष आत्मा का चैतन्य निरर्थक स्वभावरूप है ऐसा प्रथम विकल्प मानने पर आत्मा के चैतन्य लानेरूप विचार किसी भी प्रकार से संगत नहीं बैठता, इसको अगले दो श्लोकों में स्पष्ट किया गया है। चैतन्य को आत्मा का निरर्थक स्वभाव मानने पर दोषापत्ति - निरर्थक-स्वभावत्वे ज्ञानभावानुषङ्गतः। न ज्ञानं प्रकृतेर्धर्मश्चेतनत्वानुषङ्गतः ।।४५९।। प्रकृतेश्चेतनत्वे स्यादात्मत्वं दुर्निवारणम् । ज्ञानात्मकत्वे चैतन्ये नैरर्थक्यं न युज्यते ।।४६०।। अन्वय :- (आत्मन: चैतन्ये) निरर्थक-स्वभावत्वे प्रकृतेः ज्ञानभाव-अनुषङ्गतः, ज्ञानं (च प्रकृतेः) धर्म: न, चेतनत्वानुषङ्गतः। प्रकृतेः चेतनत्वे आत्मत्वं दुर्निवारणं स्यात् (अतः) चैतन्ये ज्ञानात्मकत्वे (सति तस्य चैतन्यस्य) नैरर्थक्यं न युज्यते । सरलार्थ :- यदि चैतन्य को आत्मा का निरर्थक स्वभाव माना जाय - सार्थक स्वभाव न मानकर प्रकृतिजनित विभाव स्वीकार किया जाय – तो प्रकृति के ज्ञानत्व का प्रसंग उपस्थित होता है और ज्ञान प्रकृति का धर्म है नहीं; क्योंकि ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानने पर प्रकृति के चेतनत्व का प्रसंग उपस्थित होता है। यदि प्रकृति के चेतनत्व माना जाये तो आत्मत्व मानना भी अवश्यंभावी होगा। अतः चैतन्य के ज्ञानात्मक होने पर उसके निरर्थकपना नहीं बनता। भावार्थ :- पिछले श्लोक में चैतन्य के निरर्थक न होने की जो बात कही गयी है उसी का इन दोनों श्लोकों में निरर्थक स्वभाव नाम के विकल्प को लेकर स्पष्टीकरण किया गया है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/278]

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