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आस्रव अधिकार
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जिस पर आ सके, उस पदार्थ को निमित्त कारण कहते हैं। जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्भकार, दण्ड, चक्र आदि ।
जब उपादान स्वतः कार्यरूप परिणमता है, तब भावरूप या अभावरूप किस उचित (योग्य) निमित्त कारण का उसके साथ सम्बन्ध है - यह बताने के लिये उस कार्य को नैमित्तिक कहते हैं । इस तरह से भिन्न पदार्थों के इस स्वतंत्र सम्बन्ध को निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं ।
निमित्त-नैमित्तिक संबंध परतन्त्रता का सूचक नहीं है, किन्तु नैमित्तिक के साथ कौन निमित्तरूप पदार्थ है; उसका ज्ञान कराता है। जिस कार्य को निमित्त की अपेक्षा नैमित्तिक कहा है, उसी को उपादान की अपेक्षा उपादेय भी कहते हैं ।
वास्तव में सोचा जाय तो ब्रह्मद्वैतवाद नाम का एक मत अर्थात् दुनिया में एक मात्र ब्रह्म ही है, अन्य जो कुछ देखने-जानने में आनेवाले पदार्थ हैं, वे हैं ही नहीं; भ्रम से अज्ञान से ब्रह्म (आत्मा) को छोड़कर कुछ है - ऐसा लगता है । इस मत के निराकरण के लिए पुद्गलादि पदार्थों के साथ जीव का निमित्त-नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कृपाशील आचार्यों ने कराया है। मूल अभिप्राय गायब हो गया और निमित्तभूत वस्तु को कर्ता समझने की विपरीतता बुद्धि में स्वीकृत हो गयी । निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध मात्र दो पर्यायों में होता है
कार्य-कारण- भावो ऽयं परिणामस्य कर्मणा । कर्म - चेतनयोरेष विद्यते न कदाचन ।। ११९।।
अन्वय :
(पूर्वोक्तम्) अयं परिणामस्य कार्य-कारण-भाव: (जीवस्य) कर्मणा (सह विद्यते । एष: ( कार्य-व - कारण - भावः) कर्म-चेतनयोः कदाचन न विद्यते ।
सरलार्थ :- संसारी जीव के मोह-राग-द्वेषादि परिणामों के साथ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध विद्यमान है; परंतु कार्माणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य का अनादि-निधन / त्रिकाली चेतन स्वभाव के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं है।
भावार्थ : - इस श्लोक में आचार्य निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध दो द्रव्यों के मात्र वर्तमानकालीन दो पर्यायों में घटित होता है, यह महत्त्वपूर्ण नियम बता रहे हैं। उदाहरण में कार्माण-वर्गणा को द्रव्यस्वरूप लिया और साथ में जीव द्रव्य को लिया है; जिनमें निमित्त नैमित्तिकपन घटित नहीं होता, यह विषय स्पष्ट किया है।
इसी तरह जहाँ धर्मादि चारों द्रव्यों को जो गमनादि कार्यों में निमित्त बताया है, वहाँ भी विशिष्ट पर्याय परिणत धर्मादि द्रव्य को और गमनादि क्रियारूप परिणत जीव- पुद्गल को ही लेना आवश्यक है।
अध्यापक विद्यार्थी के ज्ञान के विकास में निमित्त है इसका अर्थ भी पढ़ानेरूप पर्याय से परिणत अध्यापक और पढ़ने के परिणाम से परिणत विद्यार्थी को ही ग्रहण करना चाहिए; मात्र दोनों जीव
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