Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 252
________________ २६२ योगसार-प्राभृत धारक साधु को जिनेन्द्रकथित आगम के अध्ययन से ही होता है। इसलिए साधु को विशेष आदर से आगम में प्रवृत्ति करना चाहिए अर्थात् आगम एवं परमागम का अध्ययन अत्यंत सूक्ष्मता से तथा सन्मानपूर्वक करना आवश्यक है। भावार्थ :- मन की एकाग्रता से निज शुद्धात्मा की साधना होती है। निज शुद्धात्मा की साधना/आराधना/ध्यान ही साधु जीवन का सर्वस्व है। मन की एकाग्रता पदार्थों के निश्चय/ निर्णय से होती। पदार्थों का निर्णय आगम-परमागम के अध्ययन से होता है। अध्ययन के लिये आगम सम्बन्धी परम आदर आवश्यक है। प्रवचनसार गाथा २३२ की दोनों आचार्य कृत टीका को इस श्लोकगत विषय का भाव समझने के लिये अवश्य देखें। जिनेन्द्रकथित आगम ही प्रमाण है - परलोकविधौ शास्त्रं प्रमाणं प्रायशः परम् । यतोऽत्रासन्नभव्यानामादरः परमस्ततः ।।४२५।। अन्वय :- यतः परलोकविधौ शास्त्रं प्रायशः परं प्रमाणं (अस्ति)। ततः आसन्नभव्यानां अत्र (शास्त्रे) परमः आदरः (वर्तते)। सरलार्थ :- क्योंकि परलोक अर्थात् अगले एवं पिछले परभव के संबंध में शास्त्र अर्थात् सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान से कथित आगम ही परम/सर्वोत्तम प्रमाण अर्थात् सत्य है। इसलिए निकट भव्य जीवों को शास्त्र में प्रतिपादित तत्त्व के सम्बन्ध में परम/सर्वोत्कृष्ट आदर वर्तता है। भावार्थ :- प्रत्येक जीव के पिछले अनंत भव मिथ्यात्व एवं पुण्य-पाप के फलरूप व्यतीत हो चुके हैं और यदि कोई जीव अभव्य हो अथवा अभव्यसम भव्य हो, उनके भी भविष्यकाल में अनंत भव होते ही रहेंगे। यह संसार में भ्रमण का कार्य भी मिथ्यात्वादि एवं पुण्य-पाप के फल की रुचि के कारण ही होता है। भूतकाल में जिन अनंत जीवों ने मोक्ष प्राप्त कर लिया है और भविष्य में अनंत जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे, यह सब कार्य निज भगवान आत्मा के ध्यान से/पर्याय में प्राप्त वीतरागता से ही होता है तथा इन सबका कथन मात्र शास्त्र में है। इसलिए केवल शास्त्र ही आसन्न भव्य जीवों को शरण है। शास्त्र संबंधी आदर का सहेतुक कथन - उपदेशं विनाप्यङ्गी पटीयानर्थकामयोः। धर्मे तु न बिना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः ।।४२६।। अन्वय :- अङ्गी (संसारी जीव:) अर्थ-कामयोः उपदेशं विना अपि पटीयान् (भवति)। (परंतु) धर्मे तु विना शास्त्रादि न (प्रवर्तते) इति तत्र (शास्त्रे) आदरः हितः (भवति)।। __ सरलार्थ :- चतुर्गतिरूप दुःखद संसार में स्थित मनुष्यादि सब जीव अर्थ और काम पुरुषार्थों के साधनों में उपदेश के बिना भी निपुण रहते हैं अर्थात् प्रवृत्ति करते ही हैं, परन्तु धर्म पुरुषार्थ के साधनों में शास्त्र के बिना अनादिकाल से कोई भी जीव प्रवृत्त नहीं होता; इसलिए शास्त्र-संबंधी [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/262]

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