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चारित्र अधिकार
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अट्ठाईस मूलगुण) को धारण करके जो परिग्रह रहित होता हुआ, जो जिनमुद्रा से विभूषित होता है, वह (दीक्षार्थी) श्रमण है।
__ भावार्थ :- इन दो श्लोकों में दीक्षागुरु व दीक्षार्थी की विशेषताएं बताई गई हैं। प्रवचनसार गाथा २०४ व २०७ में भी यही भाव आया है। वहाँ नया दीक्षार्थी कैसा होता है - इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा ही स्पष्टीकरण है। टीका में इस षड्द्रव्यात्मक लोक में आत्मा से अन्य कुछ भी मेरा नहीं है - यह अंश विशेष रूप से दिया है। उपर्युक्त दोनों गाथाएँ टीका सहित जरूर देखें। श्रमण के २८ मूलगुण -
महाव्रत-समित्यक्षरोधाः स्युः पञ्च चैकशः। परमावश्यकं षोढा, लोचोऽस्नानमचेलता ।।३६२।। अदन्तधावनं भूमिशयनं स्थिति-भोजनम् ।
एकभक्तं च सन्त्येते पाल्या मूलगुणा यतेः ।।३६३।। अन्वय :- महाव्रत-समिति-अक्षरोधा: एकशः पञ्च स्युः । च षोढ़ा परमावश्यकं, लोचः, अस्नानं, अचेलता, अदन्तधावनं, भूमिशयनं, स्थिति भोजनं, च एकभक्तं एते यते: मूलगुणाः पाल्या: सन्ति। __ सरलार्थ :- अहिंसादि महाव्रत, ईर्यासमिति आदि समितियाँ, पाँच इंद्रियों के स्पर्शादि विषयों का निरोध - ये सभी पाँच-पाँच होते हैं और प्रतिक्रमणादि छह आवश्यक, सात इतर गुण - केशलोंच, अस्नान, अचेलता अर्थात् नग्नता, अदन्तधोवन, भूमिशयन, खड़े-खड़े करपात्र में भोजन और दिन में एक बार अनुद्दिष्ट भोजन - ये यति/मुनिराज के अट्ठाईस मुलगुण हैं; जिनका सदा पालन करना चाहिए।
भावार्थ :- श्रमण अर्थात् मुनिराज के लिये जिस व्रतसमूह के ग्रहण की सूचना पिछले श्लोक में की है, वे २८ मूलगुण हैं, जिनका इन दोनों श्लोकों में उल्लेख किया है। इन २८ मूलगुणों के विस्तृत स्वरूप एवं उपयोगितादि के वर्णन से मूलाचार, भगवती आराधना, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथ भरे हुए हैं, विशेष जानकारी के लिये उन्हें देखना चाहिए। नीचे २८ मूलगुणों के नाम मात्र दे रहे हैं, जिनका कथन प्रवचनसार गाथा २०८, २०९ में प्राप्त होता है।
पाँच महाव्रत :- अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह। पाँच समितियाँ :- ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन अथवा उत्सर्ग।
पाँच इंद्रिय विषयों का निरोध :- स्पर्शनेन्द्रिय का स्पर्श, रसनेन्द्रिय का रस, घ्राणेंद्रिय का गंध, चक्षुरिंद्रिय का वर्ण, कर्णेद्रिय का विषय शब्द (यहाँ स्पर्शादि विषयों से विरक्त होना अर्थात् उनको वश में करना, ऐसा अर्थ अभिप्रेत है)।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/229]