Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 173
________________ निर्जरा अधिकार १८३ (पापैः) मुच्यते। सरलार्थ :- जिन्होंने प्रमाद का आश्रय लिया है अर्थात् जो सदा प्रमाद से घिरे/प्रमादी बने रहते हैं; वे सर्वत्र पापकर्मों से गृहीत होते हैं अथवा पापों से बंधते रहते हैं। जो प्रमाद के दोष से रहित अप्रमादी हो जाते हैं, वे सदा एवं सर्वत्र पापों से मुक्त होते रहते हैं। भावार्थ :- प्रमाद से रहित अप्रमत्त संयत मुनिराज नये पापकर्म के बंधन से रहित होकर विशेष निर्जरा करते हैं, यहाँ यह सूचित करना है। प्रथम गुणस्थान से प्रमत्तविरत गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव प्रमादी हैं: इनको अपनी-अपनी भमिका के अनसार भिन्न-भिन्न पापकर्म का बंध होता है। अप्रमत्तविरत गुणस्थान से लेकर उपरिम सर्व गुणस्थानवर्ती सभी जीव अप्रमादी ही हैं, उन्हें प्रमादजन्य पाप का आस्रव-बंध तो होता ही नहीं है और निर्जरा भी अधिक मात्रा में होती है। तदनसार उन्हें धर्म एवं सख की प्राप्ति भी विशेष होती है। अप्रमादी मनिराज यदि क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो जाते हैं तो अल्पकाल में ही वे नियम से अरहंत परमात्मा बन जाते हैं। स्वतीर्थ-परतीर्थ का स्वरूप - स्वतीर्थममलं हित्वा शुद्धयेऽन्यद् भजन्ति ये। ते मन्ये मलिनाः स्नान्ति सरः संत्यज्य पल्वले ।।२७७।। अन्वय :- ये अमलं स्व (आत्म) तीर्थं हित्वा शुद्धये अन्यत् (तीर्थं) भजन्ति (अहं) मन्ये ते मलिनाः सरः संत्यज्य पल्वले स्नान्ति। सरलार्थ :- जो अज्ञानी जीव अपने स्वाभाविक तथा अति निर्मल आत्मरूपी तीर्थ को छोड़कर आत्म-शुद्धि अर्थात् परिणामों की निर्मलता के लिये अन्य अतिशयक्षेत्र अथवा सिद्धक्षेत्र रूप तीर्थ को भजते/स्वीकारते हैं; मैं (अमितगति आचार्य) समझता हूँ कि वे मूर्ख जीव निर्मल जलवाले सरोवर को छोड़कर मलिन जलवाले छोटे गड्ढे में स्नान करते हैं। भावार्थ :- यहाँ आचार्य निश्चयनय की मुख्यता से स्वतीर्थ को ही मुख्य कर रहे हैं। यह जानकर कोई व्यवहार में चौथे, पाँचवें, छठवें गुणस्थान में विद्यमान राग के निमित्त से होनेवाली शुभक्रिया तथा शुभपरिणाम का निषेध नहीं समझें। रागजन्य क्रिया और राग परिणामों का तो श्रद्धा में सम्यग्दृष्टि को सदा निषेध ही रहता है और रहना भी चाहिए । यहाँ श्रद्धा में विद्यमान परिणामों को शब्दों में बाँध दिया है। अतः इसे पढ़कर शुभक्रिया और शुभपरिणामों के अस्तित्व का निषेध न समझें। श्रद्धा का अपना कार्य अलग रहता है और उसी काल में साधक के चारित्र में एक ही समय में राग एवं वीतराग परिणाम परस्पर विरोध के बिना विद्यमान रहते हैं; इस विषय को सूक्ष्मता से समझ लेना आवश्यक है। समयसार कलश ११० का अर्थ और भावार्थ पाठक जरूर पढ़ें एवं मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २२८ पर लिखित शंका समाधान भी देखें । पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित जिनधर्म-प्रवेशिका [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/183]

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