________________
आस्रव अधिकार
परिणत हो रहे हैं। उनको ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय - इन तीनों घाति कर्मों का तथा सातादि अघाति कर्मों का आस्रव-बन्ध तो हो रहा है; तथापि उन्हें सूक्ष्मलोभ अथवा अन्य किसी भी मोहरूप पापकर्म का न आस्रव है न बन्ध है। इसी कारण से तो वे मुनिराज मोहमुक्त हो पाते हैं। इस विषय के स्पष्टीकरण के लिये पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १०३ व इस गाथा की टीका एवं तलटीप/फुटनोट भी सूक्ष्मता से देखें। प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र -
नान्यद्रव्य- परीणाममन्य- द्रव्यं प्रपद्यते।
स्वान्य-द्रव्य-व्यवस्थेय परस्य घटते कथम् ।।१२५॥ अन्वय :- अन्य-द्रव्य-परीणामं अन्य-द्रव्यं न प्रपद्यते, (अन्यथा) इयं स्व-अन्य-द्रव्यव्यवस्था परस्य (था) कथं घटते ? (अर्थात् नैव घटते)।
सरलार्थ :- अन्य द्रव्य का परिणाम अन्य द्रव्य को प्राप्त नहीं होता अर्थात् एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के परिणमनरूप कभी नहीं होता, यदि ऐसा न माना जाय तो यह स्वद्रव्यपरद्रव्य की व्यवस्था कैसे बन सकती है ?अर्थात् नहीं बन सकती।
भावार्थ:- प्रत्येक द्रव्य का परिणमन अपने-अपने उपादान के अनरूप होता है. दसरे द्रव्य के उपादान के अनुरूप नहीं। यदि एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के उपादानरूप होने लगे तो दोनों द्रव्यों में कोई भेद नहीं रहेगा। दोनों द्रव्य एक हो जायेंगे।
उदाहरण के तौर पर सन्तरे के बीज से अमरूद और अमरूद के बीज से सन्तरा भी उत्पन्न होने लगे तो यह सन्तरे का बीज और यह अमरूद का बीज है, ऐसा भेद नहीं किया जा सकता और न यह आशा ही की जा सकती है कि सन्तरे का बीज बोने से सन्तरे का वक्ष उगेगा और उस पर सन्तरे लगेंगे। अन्यथा परिणमन होने की हालत में उस सन्तरे के बीज से कोई दूसरा वृक्ष भी उग सकता है
और दूसरे प्रकार के फल भी लग सकते हैं, परन्तु ऐसा नहीं होता, इसी से एक द्रव्य में दूसरे सब द्रव्यों का अभाव माना गया है, तभी वस्तु की व्यवस्था ठीक बैठती है, अन्यथा कोई भी वस्तु अपने स्वरूप को प्रतिष्ठित नहीं कर सकती, तब हम सन्तरे को सन्तरा और अमरूद को अमरूद भी नहीं कह सकते। पर से सुख-दुःख की मान्यता से निरन्तर आस्रव -
परेभ्यः सुख-दुःखानि द्रव्येभ्यो यावदिच्छति।
तावदास्रव-विच्छेदो न मनागपि जायते ।।१२६।। अन्वय :- यावत् (जीव:) परेभ्यः द्रव्येभ्य: सुख-दुःखानि इच्छति, तावत् मनाक् अपि आस्रवविच्छेदः न जायते।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/99]