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योगसार-प्राभृत
छोटे-से-छोटा टुकडा “परमाणु' है।
पुनश्च, जिसप्रकार १६ परमाणुवाले पूर्ण पिंड को “स्कन्ध' संज्ञा है, उसीप्रकार १५ से लेकर ९ परमाणुओं तक के किसी भी टुकड़े को भी “स्कन्ध” संज्ञा है । जिसप्रकार ८ परमाणुओंवाले उसके अर्धभागरूप टुकड़े को भी “देश” संज्ञा है, उसीप्रकार ७ से लेकर ५ परमाणुओं तक के उसके किसी भी टुकडे को भी देश संज्ञा है। जिसप्रकार ४ परमाणुवाले उसके चतुर्थ भागरूप टुकड़े को “प्रदेश" संज्ञा है, उसीप्रकार ३ से लेकर २ परमाणु तक के उसके किसी भी टुकड़े को भी “प्रदेश” संज्ञा है। - इस दृ
सार भद द्वारा होनेवाले पुद्गलविकल्प समझना। पुद्गलों से लोक भरा है -
सूक्ष्मैः सूक्ष्मतरैर्लोकः स्थूलैः स्थूलतरैश्चितः।
अनन्तैः पुद्गलैश्चित्रैः कुम्भो धूमैरिवाभितः ।।७९।। अन्वय :- धूमैः कुम्भः इव लोकः अभितः सूक्ष्मैः सूक्ष्मतरैः स्थूलैः स्थूलतरैः अनन्तैः चित्रैः पुद्गलैः चितः (अस्ति)।
सरलार्थ :- धूम से ठसाठस भरे हुए घट के समान लोकाकाश सर्व ओर से अनेक प्रकार के सूक्ष्म-सूक्ष्मतर, स्थूल-स्थूलतर अनन्त पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है। ___भावार्थ :- इसीप्रकार का भाव प्रवचनसार गाथा - १६८ व उसकी टीका में आया है। यह सर्व कथन केवलज्ञान का विषय होने से आज्ञाप्रमाण है, ऐसा स्वीकारना आवश्यक है। द्रव्य के दो भेद और उनका लक्षण -
मूर्तामूर्तं द्विधा द्रव्यं मूर्तामूर्तेर्गुणैर्युतम् ।
अक्षग्राह्या गुणा मूर्ता अमूर्ता सन्त्यतीन्द्रियाः ।।८।। अन्वय :- मूर्त-अमूर्तेः गुणैः युतं द्रव्यं मूर्त-अमूर्तं द्विधा (भवति), अक्षग्राह्याः गुणाः मूर्ताः, अतीन्द्रियाः अमूर्ताः सन्ति ।
सरलार्थ :- द्रव्य मूर्तिक और अमूर्तिक दो प्रकार के हैं - जो द्रव्य मूर्त गुणों से सहित है, वे मूर्तिक द्रव्य हैं और जो द्रव्य अमूर्त गुणों से सहित है, वे अमूर्तिक द्रव्य हैं। जो गुण इन्द्रियों से जानने में आते हैं, वे मूर्त गुण हैं और जो गुण इन्द्रियों से जानने में नहीं आते वे अमूर्त गुण हैं।
भावार्थ:- इससे पूर्व (जीवाधिकार श्लोक १ से ४ में) छह द्रव्यों का विभाजन जीव-अजीव की अपेक्षा से किया गया था और यहाँ मूर्त-अमूर्त की अपेक्षा से किया जा रहा है। मूर्त गुणों से युक्त होने के कारण एक मात्र पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, शेष जीव, धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य अमूर्तगुणोंवाले होने से अमूर्तिक हैं।
स्पर्श, रस, गन्ध व वर्ण ये चार मूल गुण, जिनके उत्तर गुण (पर्याय) बीस होते हैं - इन्द्रिय ग्राह्य
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