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श्रीमद देवचन्द्रजी ने प्रमुन्नबनांना पुनः पुनः जिस प्रकार स्पष्ट शब्दों में दुहराया है वैसा अन्य किसी न गिया नहीं है। यही उनकी महान विशेषना व मौलिकता है। अब पाठकों की आपकी रचनाओं के कुछ चुने हुए पदांचा रसास्वादन कर देना उचित समझना हूं जिस उपरोक कथन कावे वयं अनुमत्र ऋ. मक्री
प्रथम नायकर, श्री ऋषभदेवक म्नुबन में प्रभु प्रति ऋग्ने का जो उपाय बतछाया गया है, बट्ट अत्यन्त ही मार्मिक है-यथा सुनिये।।
__" प्राति अनंती पर थी, वोडोन जोडे पह।।
परम पुरुषी रागना, एकत्यता हो दानी गुणगह ॥" अर्थत, प्रमु प्रति वापर यानी अन्य भौतिक, गर्मगुर पदार्शमे मोह हटाने पर ही हो। मन्ना है। प्रीति की डर नो पर पट्टायों की ओर से हटान्त प्रभु के हायमें दी वा सन्नी है। प्रीति कला मनुष्य का पहम्बमात्र विशेष है। चं निधर जिसके साथ आप लगाना चाई, लगा सकते हैं। लचिन अन्य दुसद पदार्थ और प्रमु अपने गुग के अन्दा एक दूसरे से भिन्न गुग वाट तथा विगंधी हैं। इसञ्यि दोनों में ही एक संग प्रीति नहीं की जा सन्नी । इस पद के प्रथम चरणमें का गया है निविदा मात्रा में हमारी प्रति पर पट्टायों व विश्यादि में है, उसी तोड़ते हुप. यदि हम प्र प्रानि-टन गुगम्मग्ण और चीनन ऋरत जान हैं तब पक तरफ तो उदासीनता और दूसरी और उन्लीनना अपन अात्म-गुगनि निमतता को प्राप्त करते हैं।
दुसर. पदमें प्रभु को " श्रापबना बनाया है कि निसंक द्वारा अपनी वास्तविक प्रमुता प्रगट होती है । बह इस प्रकार है
"प्रमुख ने अबलम्यतां, निज प्रमुनाहो प्रगटे गुण रात्र ।
ईयचन्द्रनी सपना, आप मुझ होयिबल मुन्नवास ॥ अजितनाथ प्रभुकम्नुबन के प्रारंम में ही जनप्रभु के अनन्ठ गुगांची सम्पदा को सुनकर गुणों के प्रगटीनमा हॉलनी चि उत्पन्न होने का कहा गया है। दूसरे चरणों में कार्य सिद्धि तो ऋर्ता के हाथ है पानिमित्त कप अपने सहायक प्रमु मिल हैं। चारण में ही चायं की सिद्धि होती है। प्र दर्शन में आम-स्वरूप व शक्ति का माग ही जादा है-दृश किय सुन्दर व्यन्त के साथ श्रीमद, देवचन्द्रजीहत हैं।
___ " अन्न-अन्यात फेरी लहरे, निज-पट्टा सिंहनिहाल।
तिम प्रभु अन्य अघि लहर, आनम-शचि संमार ॥" अयान त्रिम प्रभा विहाक वायाँकझुंड में रहने के कारण अपने की मूल वैशा ही मानना है पर जब ऋसिंहको देख छता है, तय बट्ट अपने वास्तविक स्वरुप को समझ न सिंहों के समूह में चला जाता है। उसी प्रकार सांसारिक-उपमंगनि मूली हुई हमारीश्रामा जब बीउराग-प्रभु