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चाहिए। उसे नपद्धि, निर्जंग हुई, समझकर शान्त रहे । मैं
अनाहारी पद पाऊंगा-यह भावना में रहे । चौथी समिति संयम साधक बाद्य वस्तुओं के ग्रहण काव्याग विवेक वा उपयोग पूर्वक करने की अंडनिकपना नाम है । सर्व परिग्रह परियागरूप का यह अपवाद मार्ग है कि संयम से नप की वृद्धि के लिए श्रावश्यक वस्तुओं को कम से कम मात्रा में ग्रहण के और उनका विवेकपूर्वक उपयोग करें। इससे व्यर्थ का कर्मबंध नहीं होता है ।
परिग्रह व्यागी पावर मुनि साथवीचिन मर्यादित उपकरणों का भी संग्रह क्यों करे । इसके उत्तर में, प्रत्येक उपकरण रखने का कारण समझाने हुए श्रीमदने कहा है कि:इव्य अहिसक साधि | वरचा योग समाधि ॥६॥
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का कारण भणी, जोहरण मुत्र त्रिका घर, fuerari मूल ने छान है, न हेतु सच्याय । ने आहारे ते घटि पात्र श्री, जयणाप ग्रहाय ॥७॥ बाला दण नरनारी जंतु ने, नग्न दुगंछानो छेनु । ति बोलपट ही मुनि उपदिशे, शुद्ध, घरम संकेन्द्र ||४||
are fare परिसद्दे, न रहे ध्यान समाधि | here आदिक निरमोही पणे, बारे मुनि विधि ॥१॥ केप श्रप नदीना बानो, कारण दंड ग्रद्र । ariation roar साम्रग्री, तन थिग्ना ने तंत्र ॥१०॥ लघु सजीव सचित्र जादिनां चारण हुन संघ | देखी पुरे सुनियर श्री प. पूरब मुनि यह ॥१६॥
पुद्गल संघ ग्रहण नियता, इच्ये जगणारे नाम । मात्र म परिणति नत्र नवी, गृहतां समिति प्रकाश ||१२||
बाधक भाव द्वेष पणे तजे, साधक ले गनुराग | प्रूव गुण रक्षक पोषक पणे, नोपने ae शिव माग ॥१३॥
श्रर्थान:- "भाव अहिंसा" - आम-गुण रक्षण के थिए, "द्रव्य-अहिसा " प्राणिमात्रां श्रावस्यक है। छोटे जीवोंकी रक्षा के लिए रोहण, सुखवत्रिका आवश्यक है । इसीप्रकार मोक्ष साधन में ज्ञान और ज्ञान के लिए स्वाध्याय और स्वाध्याय के लिए आहार | और आहार की जयगा पूर्वग्रहण करे तथा इसके लिए पात्र श्री यता होती है ।
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बालक व युवा नरनारी को मुनि के नम ने दुर्गा (घृणा) हो सकती है अतः इसके निवारण के लिए, जनसम्पर्क में रहने वाले सुनि के लिए चला ग्रहण करने का विधान किया गया है । मच्छरा और शीनाहिये ध्यान में चिता चित्त विशेषता होती है अतः समाधि के