Book Title: Yasastilaka and Indian Culture
Author(s): Krishnakant Handiqui
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 297
________________ 278 YASASTILAKA AND INDIAN CULTURE Jaina mystic literature with peculiar and almost redundant emphasis. Somadeva, for instance, says that when the Self realises the Self within itself by means of the Self as a result of the attainment of the Three Jewels, it attains itself (that is, its own true qualities) along with the higher Self (P. 395): ___ आत्मायं बोधिसंपत्तेरात्मन्यात्मानमात्मना । यदा सूते तदात्मानं लभते परमात्मना । The idea is expressed in similar language in several other texts, e. g., Samayasāra 196; Pūjyapāda's Istopadesa 22; Jñānārnava 32. 41; Paramātmaprakāsa 2. 174 : अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमइओ अणण्णमणो । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मणिम्मक। संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः । आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम् ॥ मात्मन्येवात्मनात्मायं स्वयमेवानुभूयते । अतोऽन्यत्रैव मां ज्ञातुं प्रयासः कार्य निष्फलः ॥ एह जु अप्पा सो परमप्पा कम्मविसेसें जायउ जप्पा । जामइँ जाण अप्प अप्पा तामहूँ सो जि देउ परमप्पा ॥ Somadeva declares that the Self meditates, the Self is the object of meditation, the Self is meditation, and the Self composed of the Three Jewels is the result of meditation (P. 395): ध्यातात्मा ध्येयमात्मैव ध्यानमात्मा फलं तथा । आत्मा रत्नत्रयात्मोक्को यथा युक्तिपरिग्रहः ॥ The absolute identity of the Self with the higher Self so that there remains no distinction between the subject and object of meditation and meditation itself is proclaimed also in other texts: Pujyapāda's Istopadesa 25; Devasena's Arādhanāsūra 11; Jñānārņava 31. 37–8: कटस्य कर्ताहमिति संबन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः । ध्यानं ध्येयं यदात्मैव संबन्धः कीदृशस्तदा ॥ भाराहणमाराहं भाराहय तह फलं च जे भणियं । तं सव्वं जाणिजो अप्पाणं चेव णिच्छयदो॥ अनन्यशरणीभूय स तस्मिन् लीयते तथा । ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ॥ सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । अपृथकत्वेन यत्रात्मा लीयते परमात्मनि ॥ Somadeva has a number of verses which contain the reflections of the devotee engaged in meditation (P. 395): सुखामृतसुधासूतिस्तद्भवेरुदयाचलः । परं ब्रह्माहमत्रासे तमःपाशवशीकृतः ॥ यदा चकास्ति मे चेतस्तद्ध्यानोदयगोचरम् । तदाहं जगतां चक्षुः स्यामादित्य इवातमाः॥ आदौ मध्वमधु प्रान्ते सर्वमिन्द्रियजं सुखम् । प्रातःस्रायिषु हेमन्ते तोयमुष्णमिवाङ्गिषु ॥ यो दुरामयदुर्देशे बद्धग्रासो यमोऽङ्गिनि । स्वभावसुभगे तस्य स्पृहा केन निवार्यते ॥ जन्मयौवनसंयोगसुखानि यदि देहिनाम् । निर्विपक्षाणि को नाम सुधीः संसारमुत्सृजेत् ॥ भनुयाचेत नायूंषि नापि मृत्युमुपाहरेत् । भृतो भृत्य इवासीत कालावधिमविस्मरन् । महाभोगोऽहमद्यास्मि यत्तत्त्वरुचितेजसा । सुविशुद्धान्तरात्मासे तमःपारे प्रतिष्ठितः ॥ तनास्ति यदहं लोके सुखं दुःखं च नाप्तवान् । स्वमेऽपि न मया प्राप्तो जैनागमसुधारसः ।। सम्यगेतत् सुधाम्भोधेर्षिन्दुमप्यालिहन मुहुः । जन्तुर्न जातु जायेत जन्मज्वलनभाजनः। I am the higher Self, the moon of the nectar of bliss, and the mountain 1 एष यः आत्मा स परमात्मा कर्मविशेषेण जातः जाप्यः । यदा जानाति आत्मना आत्मानं तदा स एव देवः परमात्मा ।। 2 आराधनमाराध्यं आराधकस्तथा फलं च यद् भणितम् । तत् सर्व जानीहि आत्मानं चैव निश्चयतः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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