Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan Author(s): Pavankumar Jain Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay View full book textPage 7
________________ (iv) प्रयोग हुआ है। यहाँ 'जाणइ' का अर्थ जानना (ज्ञान) और 'पासइ' का अर्थ देखना (दर्शन) किया गया है। मनःपर्यवज्ञान से जानना तो संभव है, लेकिन देखना कैसे संभव है? क्योंकि चक्षु आदि चार दर्शन में मन:पर्यवदर्शन का उल्लेख नहीं है। इसलिए विद्वानों में 'पासइ' क्रिया के सम्बन्ध में मतभेद है। इस सम्बन्ध में जिनभद्रगणि ने पांच मतान्तरों का खण्डन करते हुए आगमिक मत को पुष्ट किया है। सप्तम अध्याय (विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान) में सर्वोत्कृष्ट ज्ञान को केवलज्ञान कहा गया है। सकल आवरणों से रहित होकर सभी वस्तुओं के स्वरूप को प्रतिभासित करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। केवलज्ञान को परिभाषित करते हुए पूर्वाचार्यों ने जिन विशेषणों का प्रयोग किया है, उनके स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान होने से इसके अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानों के समान भेद नहीं होते हैं। लेकिन स्वामी की अपेक्षा से इसके दो भेद होते हैं - 1. भवस्थ केवलज्ञान, 2. सिद्ध केवलज्ञान। इनके भी प्रभेदों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। सिद्ध केवलज्ञान के प्रभेद अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान के भी तीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह भेद होते हैं जिनका विस्तार से निरूपण किया गया है। केवलज्ञान की प्राप्ति में मुख्य हेतु कषाय (मोह) का क्षय है। इसकी उत्पत्ति में शुक्लध्यान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रसंगवश केवली समुद्घात, केवली द्वारा योग निरोध आदि की प्रक्रिया का श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के अनुसार स्पष्टीकरण किया गया है। केवली के विषय में दिगम्बर परम्परा ने एक मत से युगपद्वाद का समर्थन किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में तीन मत प्राप्त होते हैं -1. क्रमवाद, 2. युगपद्वाद, 3. अभेदवाद। इन मतों की समीक्षा करते हुए आगमिक मत क्रमवाद को पुष्ट किया गया है। केवली केवलज्ञान से सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से रूपी-अरूपी सभी पदार्थों को जानते हैं। इस अध्याय में गति आदि 20 द्वारों के माध्यम से केवलज्ञान के स्वरूप का वर्णन किया गया है। उपसंहार के रूप में प्रत्येक अध्याय के अन्त में विशेषकर पांच ज्ञानों के विषय में विशिष्ट मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए दोनों परम्पराओं में जो भेदाभेद प्राप्त होते हैं, उसका उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को लिखने में मुझे जिन गुरुजनों एवं विद्वानों का सहयोग मिला है, उनका मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। इस अवसर पर मैं सर्वप्रथम पितृतुल्य अपने निर्देशक श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ. धर्मचन्द जैन के प्रति नतमस्तक होते हए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनके कशल निर्देशन में यह शोध-प्रबन्ध पूर्ण हो सका है। इस विस्तृत शोध-विषय को बहुत सरल, सारगर्भित एवं प्रामाणिक बनाने में जो मेरा मार्गदर्शन किया है वह मेरे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अविस्मरणीय है। आपके निजी पुस्तकालय का भी मुझे सम्बल रहा है। आपने ही नहीं, अपितु आपकी धर्मपत्नी मधु जी ने भी मेरा पूरा सहयोग किया है, अतः इनसे भी मैं अनुगृहीत हूँ। इसी सन्दर्भ में मैं डॉ. सत्यप्रकाशजी दुबे, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.) का अत्यन्त आभारी हूँ, जिनका स्नेह एवं आशीर्वाद सतत प्राप्त होता रहा है, साथ ही उन सभी विभागीय गुरुजनों का भी हृदय से अत्यन्त अभारी हूँ, जिनका आशीर्वाद और प्रोत्साहन प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के पूर्ण होने में सहायक रहा है। शोध-प्रबन्ध को पूर्ण करते समय मेरे सामने जटिल समस्याएं आई, जिनका समाधान करना मेरी क्षमता से बाहर था, मैने इन शंकाओं को ज्ञानगच्छाधिपति पूज्य पण्डितरत्न श्रुतधर श्री प्रकाशचन्द्रजी म. सा. की सेवा में निवेदन किया, जिनका मुझे युक्तियुक्त समाधान प्राप्त हुआ।Page Navigation
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