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वरंगचरिउ भाषा रही है, जिसके माध्यम से उस युग में अनेक विषयों पर अमूल्य साहित्य का निर्माण हुआ। भाषा नदी के प्रवाह की तरह होती है। वह परिवर्तनशील है, यद्यपि परिवर्तन की गति प्रतिक्षण होते हुए भी साधारणतः इतनी मंद और धीमी होती है कि वह शीघ्र देखने में नहीं आ सकती। करीब 2600 वर्ष पहले जब पुरोहितों/पंडितों ने संस्कृत माध्यम से धर्म और दर्शन के स्वरूप पर अपना अधिकार जमा लिया और सामान्य जन उससे अलग होता गया, तब संस्कृत भाषा जनसाधारण की भाषा न रहकर केवल शिष्टजनों की भाषा बन गयी। शिष्टजन जो कुछ बोलते थे, उसे जन-साधारण समझ नहीं पाता था, बल्कि उसे मौन रहकर सुन लेता था। महावीर एवं महात्मा बुद्ध ने इस स्थिति का आकलन किया और इसीलिए उन्होंने अपने उपदेशों का माध्यम जन-साधारण की भाषा प्राकृत एवं पालि (जनबोली) को बनाया, जिससे जन-साधारण उपदेश को भलीभांति ग्रहण कर सकें। जैन साधु और गृहस्थ-दोनों ने महावीर की इस नीति को चालू रखा। उन्होंने समय के साथ जनभाषा में आये परिवर्तनों के अनुसार अपने विचारों के प्रकटीकरण में भी परिवर्तन किया। उन्होंने किसी विशेष भाषा को स्वामित्व प्रदान नहीं किया, बल्कि उन्होंने श्रोता के स्तर और उसकी भाषा के माध्यम से ही अपने उपदेशों/आदर्शों का प्रचार-प्रसार जारी रखा। यही कारण है कि विभिन्न कालों में प्रचलित जन-भाषाओं में लिखित जितना साहित्य आज प्राप्त है, उनमें से अधिकांश का निर्माण जैनों द्वारा हुआ है। इसी क्रम में अपभ्रंश भाषा 6वीं ई. से 17वीं ई. तक अपने चरमोत्कर्ष पर रही है अर्थात् जब 'प्राकृत' साहित्य की भाषा बन गई तब जन- साधारण की भाषा के रूप में उसका उत्तरदायित्व अपभ्रंश ने निभाया।
. अपभ्रंश संस्कृत भाषा का तत्सम शब्द है, जिसका अर्थ भ्रष्ट, च्युत, स्खलित, विकृत अथवा अशुद्ध है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में अपभ्रंश और अपभ्रष्ट नाम मिलते हैं। प्राकृत अपभ्रंश कोशों में इसकी अर्थ सीमा का विस्तार लगभग समान रूप में मिलता है। अपभ्रंश शब्द की अनेक कोषग्रंथों में व्याख्या प्राप्त होती है, जो इसप्रकार है
1. शब्द कल्पद्रुम-अपभ्रंशः-अप + भ्रंश + घञ् : ग्राम्य भाषा। अपभाषा तत्पर्यायः अपशब्द इत्यमरः । पतनम्। अधः पतनम् । ध्वंसः। अधोगतिः ।
2. शब्दार्थ चिन्तामणि के अनुसार-अपभ्रंश-पु. : अपशब्दे । अशास्त्रशब्दे असंस्कृत शब्दे ग्राम्यभाषायाम्। संस्कृतादपभ्रंश्यति । भ्रंशुः अधः पतने।
3. वैजयन्ति कोश'-अपभ्रंशोऽपशब्दे स्यात् भाषाभेदप्रपातयोः । अपदेशस्तु लक्षे स्यान्निमित्त ब्याजयोरपि।
4. अमरकोश-अपभ्रंशोऽपशब्दः स्यात् । 1. (क) वैजयन्ति कोश, पृ. 265 (ख) अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, अध्याय-1, पृ. 3