Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 16
________________ वरंगचरिउ उसकी सीमा से लगे हुए शूरसेनादि प्रदेशों के सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रचलित बोलियों से भी प्रभावित होने के कारण अर्द्धमागधी कहलायी। दुर्भाग्यतः जिस रूप में उक्त उपदेशों की जो प्रथम ग्रन्थ रचना हुई होगी, वह रूप हमें अब उपलब्ध नहीं है। बुद्ध के उपदेशों पर आधारित पालि-साहित्य का वर्तमान स्वरूप उसे बुद्ध से सदियों पश्चात् लंका में प्राप्त हुआ था। महावीर के उपदेशों पर आधारित 'द्वादशांग' आगम आज जिस रूप में उपलब्ध है, वह रूप ई. पांचवीं सदी में हुई वल्लभीपुर वाचना का है। __प्राकृत भाषा का जो स्वरूप प्राप्त होता है, वह प्राकृत का आदिम काल तथा हिन्द आर्य भाषा का द्वितीय या मध्यम स्तर माना जाता है। यह मध्यम स्तर अपने आदि रूप में यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से संस्कृत भाषा की अपेक्षा बहुत भिन्न और सुगम है, तथापि उसमें संस्कृत की ध्वनियां बहुत कुछ समान पायी जाती हैं। यह स्तर हमें ई. की द्वितीय-तृतीय सदी तक रचे गये ग्रंथों, जैसे-पालित्रिपिटक, अश्वघोष के नाटक तथा राजा अशोक, खारवेल, आंध्रनरेशों के शिलालेखों में प्राप्त होता है।' जब मध्ययुगीन भाषा का द्वितीय स्तर प्रारम्भ हुआ, तब इसकी क्रान्तिकालीन परिस्थिति महाकवि भास के नाटकों में देखी जा सकती है। इसका विशेष लक्षण यह है कि शब्दों के क, ग, त, द आदि अल्पप्राण वर्गों का लोप होकर उनके स्थान में मात्र अ, इ आदि स्वर शुद्ध अथवा उच्चारण सौकर्य हेतु य से मिश्रित पाये जाते हैं तथा ख, घ, थ, ध आदि महाप्राणों के स्थान में 'ह' का आदेश कर दिया जाता है। इस प्रवृत्ति से प्रभावित वह समस्त प्राकृत साहित्य है जो विशेष रूप से तीसरी-चौथी सदी से लेकर छठी-सातवीं सदी तक रचा गया। यह मध्य व्यंजनों के लोप की प्रक्रिया महाराष्ट्री प्राकृत का विशेष लक्षण है और उसकी प्रतिनिधि रचनाएँ कालिदासकृत नाटकों के प्राकृत अंश, सेतुबंध, गाथासप्तशती, गउडवहो आदि हैं। हिन्द आर्य भाषा के मध्यकाल के तृतीय स्तर की प्रतिनिधित्व करने वाली अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य है। (ii) अपभ्रंश भाषा एवं उसका संक्षिप्त ऐतिहासिक परिचय भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। यहां अति प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए लोक-भाषा में साहित्य लिखा जाता रहा है। अपभ्रंश अपने समय की विशिष्ट लोकभाषा के रूप में अर्थात् अपभ्रंश भाषा हिन्द आर्यभाषा के मध्यकाल के तृतीय स्तर में एक अत्यन्त सक्षम 1. णायकुमारचरिउ, पुष्पदंत, हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृ. 23, 2. णायकुमारचरिउ, प्रस्तावना, पृ. 23

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