Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 14
________________ वरंगचरिउ 3 I यूरोपीय शाखाएँ । इन शाखाओं का हिन्द-ईरानी शाखा से मुख्य भेद यह है कि आदिम भारोपीय भाषा में 'क' वर्ग की जो कण्ठ्य, कण्ठतालव्य और कण्ठोष्ठ्य - ये तीन श्रेणियां थी, उनमें से कण्ठ तालव्य श्रेणी का हिन्द-ईरानी व उसी के समान स्लावी, रूसी आदि में ऊष्मीकरण हो गया अर्थात् क्य, ग्य आदि का उच्चारण स् होने लगा और इस प्रकार वे 'केन्तुम्' और 'सतम्' वर्गों में विभाजित हो गयी। उदाहरणार्थ, जिस भारोपीय मूल भाषा का स्वरूप उसकी उक्त शाखाओं के तुलनात्मक अध्ययन से निश्चित किया गया है, उसमें 'सौ' के लिए शब्द था "क्यंतोम्", जिसका रूपान्तरण 'केन्तुम्' वर्ग की लैटिन शाखा में केन्तुम्, ग्रीक में हेक्तोन् तथा तोखारी में कंतु हुआ । परन्तु 'सतम्' वर्गीय रूसी में स्तौ स्लाव में सूतो, अवेस्ता में सवअम् तथा वैदिक में शतम् हो गया। इस क और स की परस्पर मूल एकत्व के मर्म को समझे जाने पर अंग्रेजी के 'कामन' और 'कमेटी' तथा हिन्दी के समाज एवं समिति जैसे शब्दों के रूप और अर्थ में कोई भेद एवं उनके पैतृक एकत्व में सन्देह नहीं रहता । भारोपीय 'क्व' यूरोपीय भाषाओं में 'Q' वर्ण के रूप में अवतरित - हुआ, किन्तु किन्हीं स्थितियों में वह अंग्रेजी में 'व्ह' (Whe) के रूप में पाया जाता है। जैसे who, what, where आदि। वह भारतीय आर्यभाषा में कहीं क ही रहा, जैसे कः, किम्, क्व, आदि और कहीं च में परिवर्तित हुआ, जैसे Quarterim चत्वादि, Quit च्युत, Quiet शांत । यदि हम इन और ऐसे ही अन्य अनेक वर्ण परावर्तन व उच्चारण भेद के नियमों को समझ लें तो यूरोपीय और भारतीय आर्यभाषाओं में चमत्कारिक समानत्व व एकत्व दिखाई देने लगता है । तब तरु और tree ( ट्री), फुल्ल और फ्लावर, शैल और हिल, शाला और हॉल आदि में तो कोई भेद रहता ही नहीं, किन्तु आई और अहं, दाउ और त्वं, ही शी और इट् एवं सः, सा व इदं, दैट व दिस तथा तत् और एतद् की विषमता भी दूर होती है । Ram's mother और रामस्य माता में तो कोई भेद है ही नहीं । "" जब हिन्द - ईरानी शाखा दो में विभाजित होकर अपना अलग-अलग विकास करने लगी तब वैदिक और अवैदिक भाषाओं में भी अन्तर पड़ गया। इस अन्तर में प्रधानता है ईरानी में स का ह उच्चारण, जैसे असुर - अहुर, सप्त- हप्त, सिन्धु - हिन्दु आदि । और दूसरे उसकी वर्ग विरलता की प्रकृति जिससे उसके शब्दों व पदों में संयुक्त वर्णों का एवं संधि का अभाव पाया जाता है। यह विशेषता प्राकृत से मेल खाती है | 2 वैदिक में वर्ण-संगठन, संधि, संयुक्त व्यंजन प्रयोग तथा विभक्ति बाहुल्य का उदय हुआ । क वर्ग की तीन श्रेणियां टूटकर एक ही रह गयीं तथा चवर्ग और टवर्ग का समावेश नया हुआ । ऊष्मीकरण के विस्तार से श और ष वर्ण भी नये आ गये। इस प्रकार वैदिक भाषा का भारोपीय भाषा परिवार में अपना एक विशिष्ट स्थान है । वाणी और अर्थ का तादात्म्य है। नेत्रोन्मीलन काल से ही किसी-न-किसी रूप में वाणी की सत्ता रहती है। अभिव्यंजना का माध्यम वाणी है और यही कारण है कि साहित्य में शब्द और अर्थ का समन्वित साहचर्य रहता है । " I 1. डॉ. हीरालाल जैन, जसहरचरिउ, प्रस्तावना, पृ. 30, 2. वही, प्रस्तावना, पृ. 30 3. (क) सहितयोः शब्दार्थयोः भावः साहित्यम् - संस्कृत आलोचना (लखनऊ, 1957), पृ. 54 (ख) शब्दार्थयोर्यथावत् सहभावेन विद्यासाहित्यविद्या, काव्यमीमांसा, अध्याय-2, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, प्रथम संस्करण, पृ. 12

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