Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 13
________________ 2 वरंगचरिउ के उच्चारण किये, विविध क्रियाओं व घटनाओं को अलग ध्वनियों द्वारा प्रकट किया और फिर अपने अंतरंग भावों व विचारों को कह सुनाने की विधि प्राप्त कर ली । इस प्रकार भाषा का निर्माण मनुष्य के अपने प्रयत्न द्वारा सिद्ध हुआ । यह भाषा-निर्माण की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न स्थानों पर विविध प्रकार से विकसित हुई । सैकड़ों नहीं, सहस्रों जन-समुदाय में जो बोलियां बोली जाती हैं, उनके मौलिक तत्त्वों का तुलनात्मक अध्ययन करके भाषा वैज्ञानिकों ने अनेक भाषा परिवारों का पता लगाया है, जैसे- भारोपीय भाषा परिवार, सामी, हामी, मंगोली, निपाद व द्रविड़ आदि ।' (ii) भाषा परिवार विभाजन मचन्द्र शास्त्री के अनुसार विद्वानों ने स्थूल रूप से संसार की भाषाओं को बारह परिवारों में बांटा है। यद्यपि विश्व में दो-ढाई सौ परिवार की भाषाएँ विद्यमान हैं लेकिन प्राकृत भाषा के स्थान के निर्धारण के लिए बारह प्रकार के परिवार ही अपेक्षित हैं, जिनमें प्रथम भारोपीय भाषा परिवार है, जिसे 8 उपभाषा परिवारों में बांटा गया है। इन आठ उप परिवारों में भी प्राकृत का सम्बन्ध पांचवें उपभाषा परिवार - भारत ईरानी या आर्य भाषा परिवार से है, जिसके तीन शाखा परिवार हैं - 1. ईरानी शाखा परिवार, 2. दरद शाखा परिवार, 3. भारतीय आर्य शाखा परिवार | 2 भारोपीय परिवार अपने विस्तार, बोलने वालों की संख्या, संस्कृति, प्राचीनता व साहित्य आदि दृष्टियों से विशेष महत्त्वपूर्ण है । भारत की आर्यभाषा का प्राचीनतम स्वरूप वेदों में प्राप्त होता है और उसे वेदानुयायियों द्वारा दिव्य अनादि प्रवृत्त व अपौरुषेय माना गया है, किन्तु भाषा शास्त्रियों ने अब यह सिद्ध किया है कि वैदिक भाषा का वह रूप तीन-चार सहस्र वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। उससे पुराने शब्द रूप उस काल के मिलते हैं, जब भारतीय और ईरानी जन-समाज पृथक् नहीं हुए थे और वह सम्मिलित समुदाय एक-सी बोली बोलता था । यह बात वैदिक और प्राचीन ईरानी अर्थात् पहलवी तथा परसियों के प्राचीन धर्म ग्रन्थ अवेस्ता की भाषाओं के मिलान से स्पष्ट हो जाता है। यही नहीं, पश्चिम एशिया के भिन्न-भिन्न भागों से कुछ ऐसे लेख भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि उस काल में अपने आज के अनेक सुप्रचलित नामों व शब्दों का हिन्द-ईरानी समाज कैसा उच्चारण करता था। जिन देवों को हम सूर्य, इन्द्र और वरुण कहते हैं, उन्हें आज से चार हजार वर्ष पूर्व के आर्य लोग 'सुरिअस्', इन्तर और 'उरुवन' कहते थे। हमारे आज के एक, तीन, पांच और सात उस काल के क्रमशः अइक, तेर, पंज और सत हैं। इन शब्दों में हमें संस्कृत से भिन्न प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियां स्पष्ट दिखाई देती हैं । ' "डॉ. हीरालाल जैन के अनुसार भारोपीय भाषा की इस हिन्द - ईरानी शाखा के प्रायः साथ ही या कुछ आगे-पीछे हित्ती और तुखारी नाम की शाखाएँ पृथक् हुईं व तत्पश्चात् ग्रीक आदि` 1. जसहरचरिउ, संपादक हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृ. 29 2. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 2 3. जसहरचरिउ, प्रस्तावना, पृ. 30

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