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हे माता पिता ! आ शरीर अनित्य प्रशाश्वत छ, अशुधि अपवित्र रहे छे बळी ए शरीर अशुचि-शुक्रशोणित-थी संभूत उत्तराध्य-
..... पावनेलु छे तेम अशाचतानाम अर्थात जेने विषये जीवनो आवास अनियत के तेवू तथा दावजन्मजरामृत्यु बगेरे अने क्लेश धन- भाषांतर यन सूत्रम्
हानि स्वजन वियोग इत्यादिक- भाजन पात्र स्थान छे. अथवा दुःखना हेतुभूत क्लेश रोगादिक तेनुं भाजन-ठामरूप छे. १३ अध्य०१९
अमामए मरीरंमि । रई नेव लभामि है ।। पच्छा पुरा चइचब्वे । फेणबुभसनिमे ।। १४ ॥
पक्षात भोग भोगल्या पढी तथा पुरा भोग भोगण्या पहेला, त्यजवा योग्य तथा फोगना परपोटा समान अशावतानश्वर एवा शरीरने । स:विषये ई रति-प्रीति नथी पामतो. १५
व्या. हे पितरावहमशाश्वते शरीरे रतिं न लभामि, अहं स्वास्थ्यं न आमोमि. पुनः कीदृशे शरीरे? पश्चाद्भो-13 गभोगानंतरं (भुक्तभोगावस्थायां वार्धक्यादौ पुरा पूर्व भोगभोगादर्बागेव (अभुक्तभोगितायां याल्यादौ) त्यक्तव्ये. | पुनः कीदृशे शरीरे ? फेनबुदखुसंनि मे पानीयप्रस्फोटकमदृशे. ॥१४॥
हे माता पिता ! आ अशाश्वत शरीरने विषये हुं रति नयी पामतो. मने स्वस्थता अनुभवाती नथी. केवु शरीर? पश्चात्म्भोग भोगव्या पछी एटले भोग भोगवी रह्या पछीनी वृद्धावस्थामा तथा पुरा भोग भोगव्या पहेला, अर्थात् भोग भंगव्याज न होय एवी बाल्यावस्थामां त्यजी देवा योग्य तेमज फेनबुवुद संनिभ पाणीमां थवा फीणना परपोटा समान जोत जोतामां नाश पामनारं आवा शरीरमां मने रति-मीति थती नथी. १५
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