Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 9
________________ [६ ] इस उपदेशामृत ग्रन्थमें 'पत्रावलि-१' नामक विभागमें प्रभुश्रीजी द्वारा स्वयं लिखे गये अथवा लिखाये गये पत्रोंमेंसे लिये गये पत्र हैं। 'पत्रावलि-२' में प्रभुश्रीजीने श्री ब्रह्मचारीजीको जिस प्रकार लिखनेको कहा उस प्रकार अपनी भाषामें लिखकर लाये और उन्हें पढ़वाये गये पत्रोंका मुख्यतः संग्रह है। 'विचारणा' विभागमें प्रभुश्रीजीके स्वयंके विचार हैं। उसके बाद 'उपदेशसंग्रह-१' में प्रसंगानुसार चल रहे प्रभुश्रीजीके उपदेशको वहीं बैठकर एक मुमुक्षुभाईने कभी-कभी यथाशक्ति और यथास्मृति जो लिखा उसे संकलित किया गया है। शेष 'उपदेशसंग्रह' भाग २ से ६ तक मुमुक्षुओं द्वारा यथास्मृति, यथाशक्ति और यथावकाश किसी-किसी दिन किये टिप्पणका संग्रह है। मघाकी वर्षा के समान प्रभुश्रीजीका उपदेश तो अखण्ड अमृतवृष्टिकी भाँति निरन्तर बरसता था। उसमेंसे यत्किचित् जो कुछ यह संग्रह हो पाया है वह मुमुक्षुओंके लिये परम श्रेयस्कर, परम आधाररूप होने योग्य है। साथ ही उस उपदेशका संग्रह करनेवाले भव्य मुमुक्षुओंके स्वयंके आत्मलाभका भी कारण है। जैसे अल्प मात्रामें भी अमृत जीवको अमर बनानेमें समर्थ है, वैसे ही आत्मानुभवी सच्चे पुरुषके अचिंत्य माहात्म्यवाला यह बोध, अल्प भी आराधना करनेवालेको अजरामर पद प्राप्त करानेमें समर्थ हो ऐसा शक्तिशाली है। आत्मज्ञ महापुरुषकी आत्मा प्राप्त करने तथा प्राप्त करवानेकी उत्कण्ठा, इच्छा और उत्साह इस बोधमें स्थान-स्थानपर कुछ अपूर्व और अद्भुत दृष्टिगोचर होते हैं, तथा आत्मप्राप्त पुरुषको आत्माका रंग कैसा आश्चर्यजनक होता है यह प्रकट भास्यमान होता है, जो आत्मार्थीके लिये अत्यन्त आत्महितप्रद और आह्लादकारी प्रतीत होने योग्य है। जिसने प्रभुश्रीजीका प्रत्यक्ष बोध सुना है उसे तो यह बोध तादृश उन-उन प्रसंगोंकी स्मृतिको ताजा कर उस परम शान्तरसमय अद्भुत सत्संगके रंग-तरंगका अवर्णनीय आस्वादन कराकर अपूर्व आनन्द और श्रेयमें प्रेरित करेगा। अन्य भी तत्त्वजिज्ञासु सज्जनोंको, सरल शैली और भाषामय ऐसे ये अनुभवी महापुरुषके प्रगट योगबलवाले वचन हृदयमें अचूक प्रभाव दिखाकर आत्महित और आत्मानन्दमें प्रेरित करनेमें समर्थ हो सकते हैं। इस पत्रावलि और उपदेशसंग्रहके अतिरिक्त प्रभुश्रीजीका संक्षिप्त जीवनचरित्र भी इसमें दिया जाय तो अच्छा, ऐसी कुछ मुमुक्षु भाइयोंकी इच्छा होनेसे पूज्य श्री ब्रह्मचारीजीने, प. पू. श्री प्रभुश्रीजीके देहोत्सर्गके कुछ समय बाद लिखे गये जीवनवृत्तान्तमेंसे संक्षिप्तरूपमें यहाँ दिया गया है। सं. १९७६ तकके प्रसंग १५ खण्डोंमें उन्होंने वर्णित किये हैं। उसके बादका जीवनचरित्र अपूर्ण-अधूरा ही रहा है, जिसे उन्होंने पूरा नहीं किया है। अतः शेष प्रसंग खण्ड १६ से २१ के छह खण्डोंमें समाकर शेष जीवनचरित्र संक्षेपमें समाप्त किया है जो आत्मार्थियोंको आत्मार्थप्रेरक होओ! अनादिसे अपने घरको भूली हुई, निरन्तर परमें ही परिणमित होनेवाली चैतन्यपरिणति निज गृहके प्रति मुड़े अर्थात् स्वभावपरिणमनके सन्मुख हो और आत्मा चिदानन्दमय निजमंदिरमें नित्य निवास करके सहज आत्मस्वरूपमय शाश्वत सुख और शांतिमय निज अद्भुत अनुपम ऐश्वर्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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