Book Title: Tulsi Prajna 2002 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 6
________________ जैन दर्शन में विश्व की अवधारणा - समणी मंगलप्रज्ञा जैन दर्शन में विश्व की अवधारणा बहुत व्यापक है। वहां पर लोक शब्द से इस अवधारणा का प्रस्तुतीकरण हुआ है। जिसको व्यवहार में हम विश्व कहते हैं। वह इस लोक का एक बिन्दु सदृश अंश है। फिर भी हमने सामान्य रूप से लोक के लिए विश्व शब्द का प्रयोग किया है। जैन दर्शन का द्वैतवाद वस्तुवादी होने के साथ-साथ जैनदर्शन द्वैतवादी भी है। उसके अनुसार लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार है।' विश्व के मूल में चेतन और अचेतन-ये दो तत्त्व हैं, अन्य सभी प्रमेय इन दो तत्त्वों के ही अवान्तर भेद हैं । वे दो तत्त्व परस्पर विपरीत धर्मों से युक्त हैं। यथा--जीव-अजीव, त्रस-स्थावर, सयोनिक-अयोनिक इत्यादि । स्थानांग में प्राप्त यह वर्गीकरण जैनदर्शन की इस अवधारणा को प्रस्तुत कर रहा है कि अस्तित्व सप्रतिपक्ष होता है। पक्ष-प्रतिपक्ष से रहित अस्तित्व की सत्ता ही नहीं है। जैन दर्शन का दृष्टिकोण अनेकान्तवादी है। इसलिए वह न सर्वथा चैतन्याद्वैतवादी है और न ही जड़ाद्वैतवादी। वह चेतन और अचेतन दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। जैनदर्शन के अनुसार यह लोक जीव और अजीव की समन्विति है। जीव एवं अजीव अनन्त हैं तथा वे शाश्वत भी हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि मूल तत्त्व का न कभी उत्पाद होगा और न ही सर्वथा विनाश होगा। मात्र परिवर्तन होता रहेगा। जिसे जैनदर्शन परिणामी नित्य कहता है। वस्तु में परिवर्तन होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहेगा। संख्यात्मक दृष्टि से जीव-अजीव के अनन्त होने के कारण लोक-व्यवस्था का सम्यक् संचालन होता रहेगा। अनन्त जीवों के मुक्त हो जाने पर भी जीव और पुद्गल की अन्तःक्रिया से होने वाली सृष्टि लोक में होती रहेगी। परिमितात्मवाद मानने वालों के सामने जो समस्या है वह जैनदर्शन के समक्ष नहीं है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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