Book Title: Tulsi Prajna 2002 01 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ है। जैन व्याख्या के अनुसार हिंसा के पूर्व हिंसक के तन और मन की विकृति भी हिंसा ही है। वह उसके अपने प्राणों का व्यपरोपण है और पहले वहीं हिंसा घटित होती है। इस तरह हिंसक व्यक्ति बाहर की हिंसा के पूर्व मन में हिंसा की भावना आते ही अपनी स्व की हिंसा का अपराधी हो जाता है और उसके दण्डस्वरूप पाप-बन्ध कर लेता है। अहिंसा निर्मल चेतना से अनुशासित, विधायक और व्यवहार्य जीवन-विधान है। वह मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है, मानवता की धुरी है। जैन आचार्यों ने अहिंसा को परम-धर्म कहा है और हिंसा को सबसे बड़ा पाप माना है। तप और व्रत साधन हैं : अहिंसा साध्य है अहिंसा केवल एक व्रत नहीं है। वह एक विचार, एक समग्र-चिन्तन है। सभी संसारी जीव सुख की कामना करते हैं और दुःखों से बचना चाहते हैं। दुःखी होना कोई कभी नहीं चाहता। हिंसा ऐसा पाप है जो मरने वाले और मारने वाले दोनों को दु:खी करता है। वह दुःख का मूल है, इसलिए स्वभावतः हम हिंसा से बचना चाहते हैं। इसके विपरीत अहिंसा सबके लिए सुखद है। सब जीव स्वभावतः अहिंसक वातावरण में जीना चाहते हैं और अहिंसक वातावरण में ही अपनी अंतिम सांस लेना चाहते हैं। हिंसक वातावरण किसी को इष्ट नहीं है। जैन आचार पद्धति में गृह-निवास करने वाले गृहस्थों और गृह-त्याग कर तपस्या करने वाले मुनियों के लिए धर्म के दो भेद कहे गये हैं। गृहस्थों के लिए सागार-धर्म और मुनियों के लिए अनगार-धर्म । इसी आधार पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील और अपरिग्रह, इन पांच व्रतों को भी दो प्रकार से कहा गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और लोलुपता- इन पांच पापों का आंशिक त्याग, जो गृहस्थों के लिए संभव है, उसे पंच अणुव्रत या छोटे व्रतों के रूप में निर्देशित किया गया और इन्हीं पापों का सम्पूर्ण त्याग, जो केवल मुनियों के द्वारा साध्य है, पांच-महाव्रत के नाम से कहा गया। यहां ध्यान देने की बात यह है कि इन व्रतों में कहीं अहिंसा का नाम नहीं है। अहिंसा इन सबसे ऊपर, इन सबका अंतिम लक्ष्य मानी गई है। अहिंसा को साधन नहीं, साध्य माना गया है। अहिंसा की चरम और परम स्थिति प्राप्त करने के लिए ये सब उपाय हैं । अहिंसा से बड़ा कोई धर्म है ही नहीं। जैन आचार्यों ने सिद्ध किया है कि झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह आदि सभी पाप हिंसा के ही रूप हैं, इसीलिए उन्होंने अहिंसा को साध्य बता कर सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शेष व्रतों को उसका साधक माना है। उन्होंने आन्तरिक अहिंसा को निश्चय-अहिंसा और बाह्य आचरण में पलने वाली अहिंसा को व्यवहार-अहिंसा कहा है। 4 | - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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