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आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिंसा के त्याग को अशक्य मानकर भी अहिंसा धर्म के अनुयायी से यह अपेक्षा की गई है कि कम से कम जितने में काम चल सके उससे तनिक भी निरर्थक या व्यर्थ हिंसा उसके द्वारा न हो। पग-पग पर हिंसा से बचने की भावना रखते हए ऐसी सावधानी से अपना जीवन निर्वाह करने का उपदेश गृहस्थ को दिया गया है । इसे यों भी कह सकते हैं कि अहिंसा का आराधक हिंसा करना नहीं चाहता, पर परिस्थितिवश वह उसे करनी पड़ती है। जीवन की यही सावधानी अहिंसक जीवन-पद्धति का प्राण है। यही भगवान महावीर के द्वारा प्रदान किये गये प्राणीमात्र के लिए हितकर और कल्याणकारी उपदेश का रहस्य है। त्रस-हिंसा और स्थावर-हिंसा
संसार के समस्त प्राणी त्रस और स्थावर के रूप में दो प्रकार के हैं। कहीं-कहीं इन्हें स्थावर और जंगम जीव भी कहा गया है। स्वतः जो चल-फिर नहीं सकते ऐसे पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु तथा वनस्पति-ये पांच स्थावर या स्थिर जीव हैं । इनके अतिरिक्त जो चलतेफिरते दिखाई देते हैं, वे सब त्रस या जंगम जीव हैं। अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं से लगाकर जलचर, नभचर और थलचर, पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि सृष्टि के समस्त प्राणी इस त्रस या जंगम की परिभाषा में आते हैं।
साधक को अपना जीवन-निर्वाह करने के लिए जो कार्य करने पड़ते हैं उनमें स्थावर जीवों की हिंसा निरंतर होती रहती है। यह जीवन की अनिवार्यता है, अतः उसके त्याग का उपदेश नहीं दिया गया। इतनी अपेक्षा अवश्य की गई है कि अहिंसा का आदर करने वाला व्यक्ति जल, वायु और वनस्पति आदि का भी ऐसी सावधानी से उपयोग करेगा कि उसके आचरण से इन स्थावर जीवों का भी निरर्थक विनाश न हो। असावधानी या लापरवाही से यदि इन स्थावर जीवों का, दूसरे शब्दों में कहें तो क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर और वनस्पति का आवश्यकता से अधिक घात होता है तो वह अपराध है।
त्रस जीवों की रक्षा के लिए तो साधक को प्रतिक्षण सावधान रहना होता है। सुविचारित जीवन-शैली में कहीं एक भी त्रस-जीव का विघात अनिवार्य नहीं है। हर मनुष्य को उससे बच कर ही अपने जीवन का निर्वाह करना चाहिए। यही अहिंसा की साधना है। इसमें पाप-पुण्य के विचार के साथ लोक-कल्याण की भावना भी निहित है।
आज टी.वी., रेडियो, नल-बिजली, पंखा-कलर, हीटर, गैस और स्टोव हमारे जीवन की प्राथमिक आवश्यकता में आते हैं। उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु लापरवाही पूर्वक कई बार उनका जो निरर्थक-प्रयोग होता रहता है, बिना जरूरत वे खुले या चालू पड़े रहते हैं, उसे रोककर हम अहिंसा के कुछ अधिक निकट पहुंच सकते हैं। यह सब राष्ट्रीय अपव्यय भी है, अत: इसे रोकना एक तरह की देश-सेवा भी कही जा सकती है।
हिंसा के दोष का निर्णय उसकी भावना के आधार पर ही किया जाता है। यह तो पहले ही समझा जा चुका है कि हिंसा की नींव चार कषायों-क्रोध-मान-माया-लोभ पर आधारित
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] तुलसी प्रज्ञा अंक 115
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