Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ नैतिक आस्था के रूप में अहिंसा के प्रति समर्पित व्यक्ति की अहिंसा के प्रति आस्था कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अडिग रहती हैं। गांधी के अनुसार अहिंसा मानव के गरिमामय अस्तित्व का शाश्वत नियम हैं किन्तु उसकी असीम शक्ति तभी सक्रिय हो सकती है जबकि उसे अपनाने वाले व्यक्ति का मन, मस्तिष्क और आचरण अहिंसा के प्रति आस्था से पूरी तरह ओत-प्रोत हो। अहिंसा कायरता नहीं गांधीजी की अहिंसा में कायरता के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होनें स्पष्ट किया कि अहिंसा एक ऐसा अस्त्र है जिसका प्रयोग केवल बहादुरों द्वारा किया जा सकता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि भय और अहिंसा एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत प्रकृतियां हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक व्यक्ति पूरी तरह निर्भीक नहीं होगा, वह सर्वोच्च मानवीय सद्गुणों के रूप में अहिंसा की प्रभावकारी शक्ति का आत्मसात ही नहीं कर सकेगा। गांधीजी ने कहा कि अहिंसा सर्वोच्च सद्गुण हैं, कायरता निकृष्टतम दुर्गुण । अहिंसा में कष्ट सहने की तत्परता, कायरता में कष्ट पहुंचाने की प्रवृत्ति, पूर्ण अहिंसा सर्वोच्च शौर्य है। अहिंसक कृत्य कभी नैतिक विवाद उत्पन्न नहीं कर सकता जबकि कायरतापूर्वक कृत्य सदैव नैतिक पतन का कारण होगा। ___ गांधीजी का दृढ़ मत था कि अहिंसा का अभ्यास कायरों द्वारा किया जाना संभव ही नहीं है। किसी अन्याय का हिसंक साधनों के प्रतिकार करने वाले व्यक्ति की तुलना में अहिंसा के अनुयायी की अनिवार्य रूप से अधिक साहस और शौर्य की आवश्यकता होगी। उनका मत था कि व्यक्ति जो युद्ध के लिए तलवार लिए हुए है, निश्चित रूप से बहादुर है किन्तु वह व्यक्ति को अपनी कनिष्ठिका को उठाये बिना भी और बिना किसी भय के मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार हैं, निश्चित रूप से अधिक बहादुर हैं । जब तक कोई व्यक्ति अपने हाथ में तलवार रखना चाहता है, यह स्पष्ट है कि उसने पूर्ण निर्भयता की स्थिति प्राप्त नहीं की हैं। दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति को कोई भय प्रभावित ही नहीं कर सकता जिसने स्वयं को अहिंसा की तलवार से सुसज्जित कर लिया है। गांधीजी का मत है कि अहिंसा के साधक के सामने एक ही भय होता है और वह है ईश्वर का भय। अहिंसक व्यक्ति को नश्वर शरीर की तुलना में आत्मा की शाश्वतता में विश्वास होता है। आत्मा की शाश्वतता हो जाने मात्र से वह अपने नश्वर शरीर का मोह छोड़ देता है और वह इस सत्य को जान लेता है कि हिंसा के द्वारा बाह्य नश्वर और स्थूल चीजों की ही सुरक्षा की जा सकती हैं जबकि अहिंसा के द्वारा आत्मा और आत्मसम्मान की रक्षा की जा सकती है। गांधीजी ने स्वीकार किया कि समस्त व्यक्ति अहिंसा के पालन में समान रूप से सक्षम नहीं हो सकते, क्योंकि अहिंसा के लिए आवश्यक निर्भीकता और आत्मबल को सब व्यक्तियों में उत्पन्न नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार किसी व्यक्ति के अहिंसक आचरण की प्रकृति उसके पास उपलब्ध आत्मबल और निर्भीकता की मात्रा के अनुपात में निश्चित होती है। अतः इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अहिंसा की तीन श्रेणियों को स्वीकार किया है 1. जागृत अहिंसा, 2. औचित्यपूर्ण अहिंसा, 3. भीरूओं की अहिंसा 60 - ___ तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122