Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ 1. व्यक्तिगत प्रत्यक्ष हिंसा-इसके अन्तर्गत पीटना, हत्या करना, बलात्कार, भ्रूणहत्या आदि को लिया जा सकता है। 2. संगठित प्रत्यक्ष हिंसा-जैसे युद्ध या पुलिस द्वारा की गई क्रूरता। 3. व्यक्तिगत प्रच्छन्न हिंसा-गम्भीर मनोवैज्ञानिक हिंसा जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके सम्मान को तिरस्कृत किया जाता है। इस प्रकार की हिंसा में विचार, शब्द या कार्य के द्वारा, स्वयं के द्वारा अथवा दूसरों को सहयोग करके या ऐसी स्थितियां पैदा करके या जाति, लिंग और धार्मिक विश्वासों के आधार पर दूसरों को चोट पहुंचाई जाती है। 4. संगठित प्रच्छन्न हिंसा-जहां व्यवसाय, सरकार, शिक्षण, कारागृह आदि संस्थाएं समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व की उपेक्षा करती है । दयनीय आवास सुविधाएं, जातीय-भेदभाव, बेरोजगारी, मताधिकार से वंचित करना, दमनकारी शिक्षा आदि को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। प्रच्छन्न हिंसा चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या संस्थागत स्तर पर विशेष रूप से घातक होती है, क्योंकि यह प्राय: सूक्ष्म होती है तथा दूसरों की दृष्टि में नहीं आती । इसकी जड़ें समाज की संरचना में होती हैं । उदाहरणतः फुटपाथों अथवा निराश्रित हजारों लोगों में से 10 प्रतिशत लोग शायद ही स्पष्ट जानकारी रखते हों कि कत्लगृहों में वास्तव में क्या होता है अथवा एक फैक्टरी से निःसृत होने वाले विषैले पदार्थों का पर्यावरण पर क्या असर होता है? हिंसा के प्रयोग के दो पक्ष हैं-वास्तविक प्रयोग और सम्भावित प्रयोग। वास्तविक प्रयोग में प्रदर्शन तथा राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक अपराध सम्मिलित हैं, हिंसा के प्रयोग की धमकी देना उसका संभावित प्रयोग है । हिंसा के प्रयोग की धमकी के लिए समय-समय पर हिंसा का प्रदर्शन भी आवश्यक है । हिंसा के प्रयोग की धमकी स्थिरता लाती है तथा शांति को बनाए रखती है। रोज जोन्स के अनुसार हिंसा और अहिंसा कोई वास्तविक श्रेणियां नहीं है । अहिंसा में सूक्ष्म हिंसा का भाव तथा हिंसा में सूक्ष्म अहिंसा का भाव देखा जा सकता है। इसलिए अहिंसा में से हिंसा के तत्त्वों को दूर करना तथा हिंसा में अहिंसा के तत्त्वों को खोजने का हमारा प्रयास होना चाहिए ताकि हिंसा को न्यूनतम और अहिंसा को अधिकतम किया जा सके। हिंसा का सर्वथा विलोपन सम्भव नहीं है, क्योंकि समाज से संघर्ष को पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। जार्ज सोरेल ने हिंसा की भमिका का प्रारम्भिक परीक्षण किया है। सोरेल ने सामाजिक संघर्षों में हिंसा के विधेयात्मक कार्यों को देखा तथा हिंसा की आवश्यकता पर बल दिया। सोरेल ने इस तथ्य को पूर्णतया नकार दिया कि हिंसा का क्रूर प्रयोग भी हो सकता है और न ही उसने इच्छित साध्य की प्राप्ति के लिए साधन के रूप में हिंसा को स्वीकृति दी। वह हिंसा के माध्यम से साहस, एकता, संयम के विकास का पक्षधर था। सोरेल के हिंसा के सिद्धान्त में तीन मान्यताएं महत्त्वपूर्ण हैं 1. सामाजिक संघर्षों में हिंसा कार्यकारी है। 2. यह एक इच्छित साध्य का साधन नहीं है। 3. यह मूल्यों की प्राप्ति और परिशोधन में सहायक है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 - 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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