Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 44
________________ पुराणों से सिद्ध है कि प्राचीन जैन मंदिर उद्यानों, सरोवरों से युक्त बगीचों में हुआ करते थे । इसलिए आज भी मंदिरों के सेवकों को माली या बागवान कहते हैं। जो ये तथ्य उद्घाटित करते हैं कि ध्यान व उपासना के केन्द्र समस्त जिनालय उद्यानों के बीच होते थे। इसका संबंध निश्चित ही पर्यावरण से है जो प्रदूषण से रहित सुरक्षित स्थानों में निर्मित होते थे । श्रमणों की तपस्थली निर्जल घने वन व पर्वतमालाएं, गुफाएं हुआ करती थीं । २० तीर्थंकरों ने सम्मेदाचल को तपोभूमि वहां के पर्यावरण के कारण ही चुना होगा। जहां घने जंगलों में शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सीजन) का अपार भण्डार अनायास ही साधक की साधना को निर्विघ्न बनाये रखता था। शांत, एकान्त वातावरण अध्यात्म की साधना में सहायक हुआ करता था । ग्रीष्मकाल में भी वृक्षों के कारण शीतल, आर्द्र वायु का संचार सूर्य की तपन को कम कर देता है । अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण अहिंसा पर्यावरण के संरक्षण का मूल आधार है । अहिंसा की आचार संहिता जीवों की रक्षा करके पर्यावरण को पूर्ण संतुलित रखती है। अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है। श्रावक की भूमिका में आरंभी उद्योगी और विराधी हिंसा त्याज्य नहीं है परन्तु संकल्पी हिंसा का वह त्यागी होता है तथा एकेन्द्रिय स्थावर जीवों जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी अकारण विराधना नहीं करता है। शाकाहार और पर्यावरण संतुलन शाकाहार और पर्यावरण सन्तुलन-दोनों का चोली-दामन का संबंध है। मुनि विद्यानंद जी महाराज ने कहा है-'क्रूरताओं की शक्ति का बढ़ना इस शताब्दी का सबसे बड़ा अभिशाप है । ' इससे समग्र पर्यावरण प्रदूषित होता है। प्रकृति ने मानव आहार के लिए वनस्पति व स्वादिष्ट फल- मेवा दिये हैं । जो पशु-पक्षी मानव के प्यार में इतने वफादार बन जाते हैं कि वे अपना सब कुछ न्योछावर कर सकते हैं, उन्हें अपना आहार बनाना कितना घृणित कर्म है ? मांसाहार क्रूरता की जमीन से पैदा होने वाला आहार है जो सर्वदा प्रकृति के प्रतिकूल होता है। मांसाहार पृथ्वी पर जलाभाव के लिए उत्तरदायी है। प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि जहां प्रति टन मांस उत्पादन के लिए लगभग ५ करोड़ लीटर की आवश्यकता होती है, वहां प्रति टन चावल, गेहूं के लिए क्रमशः ४५ लाख व ५ लाख लीटर जल की आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका में कत्लखानों के कारण पर्यावरण विनाश की जो स्थिति पैदा हो रही है, वही भारत में होनी सुनिश्चित है। भारत में पशुधन का जिस गति से विनाश कर मांस उत्पादन किया जा रहा है, वह मांस निर्यात भारत शासन की नीति के कारण हो रहा है जो विदेशी मुद्रा के अर्जन के अलावा और कुछ नहीं दिखती। देश के कत्लखाने पर्यावरण के शत्रु हैं। श्रमणाचार एवं पर्यावरण दिगम्बर जैन मुनि अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करते हैं जो विशुद्ध वैज्ञानिक एवं पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल है। मुनि का अपरिग्रह महाव्रत प्रकृति के अतिदोहन पर अंकुश तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 39 www.jainelibrary.org

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