Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ वर्तमान विश्व के सामने जो आज समस्याएं हैं, लगभग वही भगवान् महावीर के युग में भी थीं। तब भी नारी पुरुष के बीच विषमता थी, समृद्धि और गरीबी के बीच गहरी खाई थी। क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंसा और बल का प्रयोग होता था, शास्त्र और शास्त्रों के धारक केवल अपने को शक्तिशाली मानते थे । विचारों की अशुद्धि और संकीर्णता ने पूरे वातावरण को प्रदूषित कर रखा था। यद्यपि भगवान् महावीर की साधना इन सब सांसारिक और क्षुद्र समस्याओं के निराकरण के उद्देश्य से नहीं थी, किंतु उन्होंने जो अपने चिन्तन की रश्मियां फैलायीं उसमें आत्मा का परम तत्त्व तो दिखा ही, इन सामाजिक समस्याओं का अंधकार भी तिरोहित हो गया। प्रत्येक वर्ग को लगा कि भगवान् महावीर का चिन्तन व्यक्ति के कल्याण के लिए भी है। भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म-दर्शन के चिन्तन के कुछ बिन्दुओं की प्रासंगिकता हम आधुनिक सन्दर्भ में देख सकते हैं। भगवान् महावीर के युग पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि वह युग भी आज युग की भांति अत्यंत बौद्धिक कोलाहल का युग था । हमारा आज का युग अध्यात्म, मोक्ष आदि पारलौकिक चिन्तन के प्रति विरक्त ही नहीं, अनास्थावान भी है। भगवान् महावीर के युग में भी भौतिकवादी एवं संशयमूलक जीवन दर्शन के मतानुयायी चिंतकों ने समस्त धार्मिक मान्यताओं, चिर संचित आस्था एवं विश्वास के प्रति प्रश्रवाचक चिह्न लगा दिया था। पूरणकस्सप, मक्खलि, गोशालक, अजिकेशकम्बलि, पकुध कच्चायन, संजय बेलटिठपुत्त आदि के विचारों को पढ़ने पर आभास होता है कि युग के जन-मानस को संशय, त्रास, अविश्वास, अनास्था, प्रनाकुलता आदि वृत्तियों ने किस सीमा तक आबद्ध कर लिया था। पुरणकस्सप एवं पकुध कच्चायन दोनों आचार्यों ने आत्मा की स्थिति तो स्वीकार की थी किन्तु अक्रियावादी दर्शन का प्रतिपादन करने के कारण इन्होंने सामाजिक जीवन में पाप-पुण्य की सभी रेखाएं मिटाकर अनाचार एवं हिंसा बीज का वपन किया। पुरण कस्सप प्रचारित कर रहे थे कि आत्मा कोई क्रिया नहीं करती, शरीर करता है और इस कारण किसी भी प्रकार की क्रिया करने से न पाप होता है, न पुण्य । पकुध कच्चायन ने बताया कि - 1. पृथ्वी, 2. जल, 3. तेज, 4. वायु, 5. सुख, 6. दुःख एवं 7. जीवन सात पदार्थ अकृत, अनिर्मित, अवध्य, कूटस्थ एवं अचल हैं। इस मान्यता के आधार पर वे यह स्थापना कर रहे थे कि जब वे अवध्य हैं तो कोई हंता नहीं हो सकता। 'यदि तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा किसी को काट भी दिया जाये तो भी वह किसी को प्राण से मारना नहीं कहा जा सकता।' अजितकेसकंबलि पुनर्जन्मवाद पर प्रहार कर आस्तिकवाद को झूठा ठहरा रहे थे तथा भौतिकवादी विचारधारा का निरूपण करने के लिए इस सिद्धान्त की स्थापना कर रहे थे कि 'मूर्ख और पंडित सभी शरीर के नष्ट होते ही उच्छेद को प्राप्त हो जाते हैं।' भगवान् महावीर के समकालिक आचार्य मंखलि गोशालक की परम्परा को आजीवक या आजीविक कहा गया है। ' मज्झिमनिकाय' में इनकी जीवन-दृष्टि को ' अहेतुकदिट्ठि' अथवा 'अकिरियादिट्ठि' कहा गया है। इस प्रकार उनके मत में व्यक्ति की इच्छा शक्ति का अपना कोई महत्त्व नहीं है। नियतिवादी होने के कारण गोशालक प्रचारित कर रहे थे कि जीवन-मरण, सुख-दुःख, हानि-लाभ, अनतिक्रमणीय हैं। इन्हें टाला नहीं जा सकता, वह होकर ही रहता है । तुलसी प्रज्ञा अंक 115 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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