Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ संजयवेलट्ठिपुत्त अनिश्चय एवं संशय के चारों ओर चक्कर काट रहे थे। इनके अनुसार अयोनिज प्राणी, शुभाशुभ कर्मों के फल आदि के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार जिस समय दर्शन के क्षेत्र में चारों ओर घोर संशय, अनिश्चय, तर्क, वितर्क, प्रश्नाकुलता व्याप्त थी, आचारमूलक सिद्धान्तों की अवहेलना एवं उनका तिरस्कार करने वाली चिन्तकों के स्वर सुनायी दे रहे थे, मानवीय सौहार्द एवं कर्मवाद के स्थान पर घोर भोगवादी, अक्रियावादी एवं उच्छेदवादी वृत्तियां पनप रही थी, जीवन का कोई पथ स्पष्ट नहीं दिखायी दे रहा था, उस समय भगवान् महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याण के लिए, अपने ही प्रयत्नों द्वारा उच्चतम विकास कर सकने का आस्थापूर्ण मार्ग प्रशस्त कर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, परिग्रहवाद एवं अहिंसावाद आदि का संदेश देकर नवीन आलोक प्रस्फुटित किया। आज की भौतिक विज्ञान की उन्नति मानवीय चेतना को जिस स्तर पर ले गयी है वहां पर उसने महावीर की मान्यताओं के सामने प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। प्राचीन मूल्यों के प्रति मन में विश्वास नहीं रहा है। महायुद्धों की आशंका, आणविक युद्धों की होड़ और यांत्रिक जड़ता ने हमें एक ऐसे स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां सुन्दरता भी भयानक हो गयी है। डब्ल्यु.बी. ईट्स की पंक्तियां शायद इसी परिवर्तन को लक्ष्य करती हैं ___All changed, changed utterly, A terrible beauty is born. वैज्ञानिक उन्नति की चरम सम्भावनाओं से चमत्कृत एवं औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजरने एवं पलने वाला आज का आदमी इलियट के वेस्टलैंड के निवासी की भांति जड़वत एवं यंत्रवत होने पर विवश होता जा रहा है। रूढ़िगत धर्म के प्रति आज का मानव किंचित भी विश्वास को जुटा नहीं पा रहा है। समाज में परस्पर घृणा, अविश्वास, अनास्था एवं संत्रास के वातावरण के कारण आज अनेक मानवीय समस्याएं उत्पन्न होती जा रही हैं। आर्थिक अनिश्चयात्मकता, अराजकता, आत्मग्लानि, व्यक्तिवादी आत्मविद्रोह, जीवन की लक्ष्यहीन समाप्ति आदि प्रवृत्तियों से आज का युग ग्रसित है। कोटिकोटि जन जिन्हें युगो-युगों से समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है वे आज भाग्यवाद एवं नियतिवाद के सहारे मौन होकर बैठ जाना नहीं चाहते किंतु सम्पूर्ण व्यवस्था पर हथौड़ा चलाकर उसे नष्ट कर देना चाहते हैं। परम्परागत जीवन मूल्यों को तोड़ने की उद्देश्यगत समानता के होते हुए भी भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती एवं समसामयिक अक्रियावाद चिन्तन एवं आधुनिक अस्तित्ववादी चिन्तन में बहुत अन्तर है। अस्तित्ववादी चिन्तन ने मानव-व्यक्ति के संकल्प स्वतंत्र, व्यक्तित्व-निर्माण के लिए स्व प्रयत्नों एवं कर्मगत महत्त्व का प्रतिपादन, कर्मों के प्रति पूर्ण दायित्व की भावना एवं व्यक्तित्व की विलक्षणता, गरिमा एवं श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। अस्तित्वसम्पन्न मानव अपने ऐतिहासिक विकास के अनिर्दिष्ट, अज्ञेय मार्ग को मापता चलता है। आज का व्यक्ति स्वतंत्र होने के लिए अभिशापित है। आज व्यक्ति परावलम्बी होकर नहीं, स्वतंत्र निर्णयों के द्वारा विकास करना चाहता है। सार्च का अस्तित्वाद ईश्वर का निषेध करता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 - - 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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