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में द्रव्य-हिंसा से अधिक भाव-हिंसा कारण बनती है। इससे एक तथ्य यह भी प्रगट होता है कि अपने मन की मलिनता के कारण हम ऐसे अनगिनत पापों के फल भोगते रहते हैं जो हमने कभी किये ही नहीं होते। केवल चित्त की चंचलता के कारण और राग-द्वेष की तीव्रता के कारण तरह-तरह के कुत्सित विचार हमारे मन में उठते रहते हैं । परिणामतः कुछ किये बिना भी मन की उन विकारी तरंगों के दुःखद परिणाम भोगने के लिए हम विवश हो जाते हैं।
भाव-हिंसा और द्रव्य-हिंसा की तरह पाप-वृत्तियों को मानसिक और भौतिक या स्थूलता के स्तर पर, दोनों प्रकार से समझना चाहिये।झूठ भी भाव-झूठ और द्रव्य-झूठ के प्रकार से दो तरह का है। चोरी और कुशील भी इसी तरह दो-दो प्रकार के हैं। इसी प्रकार परिग्रह को भी मानसिक और भौतिक स्तर का भेद करके समझना होगा। चार मनस्थितियां : चार परिस्थितियां
मन, वाणी और शरीर के दुष्प्रयोग से होने वाली हिंसा में चार संभावनाएं बनती हैं
1. एक व्यक्ति ने खेत पर एक सांप देखा। उसे मारने का विचार किया। यह भाव-हिंसा हो गई। फिर उसने डण्डा उठाकर उसे मार डाला, यह द्रव्य-हिंसा हो गई।
2. उसने डण्डा उठाया तब तक सांप भाग गया। वह चाहते हुए भी उसे मार नहीं पाया। यहां भाव-हिंसा तो हुई परन्तु द्रव्य-हिंसा घटित नहीं हुई।
____3. एक व्यक्ति बैलगाड़ी हांक रहा था। धोखे से सांप उसके नीचे कुचल कर मर गया। सांप को मारने का उसका कोई इरादा नहीं था। यहां भाव-हिंसा का अभाव था परन्तु द्रव्य-हिंसा घटित हो गई।
4. एक व्यक्ति खेत में सांप को देखकर भी उसे मारने का विचार नहीं करता। वह सोचता है-इसने अपना कुछ बिगाड़ा नहीं, सृष्टि में सभी प्राणियों को जीने का अधिकार है, व्यर्थ इसके प्राण लेने से मुझे क्या प्रयोजन ! इस दृश्य में न तो भाव-हिंसा है और न ही द्रव्य-हिंसा है।
चारों स्थितियों में हिंसा के पाप का फल व्यक्ति के मनोभावों के अनुरूप अलग-अलग होगा।
इसी प्रकार मन-वाणी और शरीर के अनुशासन से अहिंसा में भी चार संभावनाएं बनती
1. हिंसा-त्याग की भावना से रहित, अमर्यादित, राग-द्वेष-मोह से भरा हुआ स्वच्छन्द जीवन, जहां व्रत और पाप-त्याग के बिना निरन्तर भाव-हिंसा होती रहती है और मन-वचनकाय के असंयम के कारण प्रतिक्षण द्रव्य-हिंसा भी हो रही है। यहां भाव हिंसा भी है और द्रव्य-हिंसा भी है।
2. कोई बहेलिया जाल फैलाकर बैठा है। संयोगवश एक भी पक्षी जाल में नहीं फंसा। यहां भाव-हिंसा तो है परन्तु द्रव्य-हिंसा नहीं है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 115
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