Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ ६. समाधि से सुगति की प्राप्ति होती है, ऐसा मानकर समाधिस्थ साधु का सिर काट लेना। समाधिस्थ दशा में मरेगा तो सीधा मोक्ष जायेगा, ऐसा मानकर गुरु का ही घात कर देना। ७. देवताओं के लिए हिंसा करना। पूजा, यज्ञ आदि में पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाना। ८. दूसरे को भोजन देने के लिए अपने शरीर का मांस निकाल कर देना, इस प्रकार स्वघात करना। ये सारी क्रियायें हिंसा ही हैं। मनमाने आधार देकर इन क्रियाओं को धर्म की परिभाषा में समाहित करना या हिंसा-रहित बताना न तो तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है और न ही पाप-पुण्य के संदर्भ में उसका कोई औचित्य सिद्ध होता है । हिंसा का कार्य धर्म तो किसी भी प्रकार हो ही नहीं सकता। जो हिंसा करेगा वह नियम से पाप का भागी होगा। जो अग्नि में हाथ डालेगा वह जलेगा, यही प्राकृतिक न्याय है अहिंसा के समर्थन में ऋषियों की वाणी अहिंसा को प्रायः सभी विचारकों ने परम-धर्म कहा है। तुलसीदास ने श्रुतियों की साक्षी से कहापरम धरम श्रुति विदित अहिंसा, पर निन्दा सम अघ न सरीसा। (रामचरितमानस, उत्तराकाण्ड, १०२-ख) किन्तु मानस में ही अन्यत्र उन्होंने सत्य को भी परम-धरम कह दिया- धरमु न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना। (अयोध्याकाण्ड, ९४) गोस्वामीजी ने परम-धरम की एक और परिभाषा करके परोपकार को भी परम-धरम कह दियापरहित सरित धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। (उत्तराकाण्ड, ४०) अब यदि इन तीनों पंक्तियों को एक साथ पढ़ा जाए तो मन में उलझन पैदा होती है। एक प्रश्न उठता है कि परम-धरम तो एक ही होना चाहिए । वह तीन प्रकार का कैसे हो सकता है? हर कहीं प्रधान तो एक ही होता है। दो तो परम नहीं हो सकते। परन्तु विचार करने पर सुगमतापूर्वक इसका समाधान इस प्रकार हो जाता है हमारे पास मन, वाणी और शरीर, ये तीन ही साधन हैं। धर्म तो वही हो सकता है जो इन तीनों में बस जाये, इन तीनों को पवित्र करे । वास्तव में परम-धरम तो एक ही है और वह है 'अहिंसा'। मन का सारा सोच-विचार और मन के सारे संकल्प अहिंसा पर आधारित और अहिंसामय होने चाहिए। हमारे कृत्य पर नहीं। हमारे भाव भी अहिंसामय हों, यह अहिंसा की अनिवार्य शर्त है। अतः चिन्तन के स्तर पर अहिंसा ही परम धर्म है। मन की वह अहिंसा जब शब्दों का रूप धारण करके वाणी में उतरती है तब सत्य को परम-धर्म की संज्ञा मिलती है। इसी प्रकार शरीर के माध्यम से जब अहिंसा आचरण में उतरती है तब वह पर-हित का काम,परम-धर्म कहा गया है। ध्यान रखना होगा कि सत्य और परोपकार तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 .... 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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