Book Title: Tulsi Prajna 2002 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ हिंसा के चार प्रकार यह सृष्टि सूक्ष्म और स्थूल, स्थिर और जंगम जीवों से ठसाठस भरी हुई है। यहां कोई स्थान और कोई पदार्थ जीव-विहीन नहीं है, इसलिए मनुष्य को पूर्ण अहिंसक हो जाना संभव ही नहीं है। मन-वचन और काय की प्रवृत्ति होती रहे और हिंसा न हो, ऐसा संभव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में हिंसा से बचाकर, जीवन को अहिंसा की ओर प्रेरित करने के लिए जैन दार्शनिकों ने अल्पतम हिंसा वाली जीवन-पद्धति का आविष्कार किया है। उन्होंने व्यावहारिक वर्गीकरण करके हिंसा के संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी ये चार भेद किये हैं 1. संकल्पी - हिंसा - संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को पीड़ा देना या उसका वध करना संकल्पी - हिंसा है। आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, मानवता विरोधी हमलों और मांसभक्षण के लिए की गई शिकार आदि प्रवृत्तियों में होने वाली हिंसा इस परिभाषा में आती है। मांसाहार और शराब आदि में जो जीव-घात होता है वह भी संकल्पी हिंसा की कोटि में ही आता है। धार्मिक अनुष्ठानों का बहाना लेकर की जाने वाली पशु बलि आदि भी संकल्पी हिंसा है। यही हिंसा सबसे बड़े पाप की तरह हमारे लिए दुर्गति के द्वार खोलती है। 2. आरम्भी हिंसा - जीवन के लिए अनिवार्य कार्यों में, भोजन बनाने, नहाने धोने, वस्तुओं को उठाने रखने, उठने-बैठने, सोने- चलने-फिरने आदि क्रियाओं में जो जीव घात होता है उसे आरम्भी - हिंसा कहा गया है। 3. उद्योगी हिंसा - आजीविका उपार्जन के लिए नौकरी में, खेती में और उद्योग-व्यापार में अपरिहार्य रूप से जो हिंसा होती है वह उद्योगी-हिंसा की परिभाषा में आती है। इसमें यह स्मरणीय है कि अहिंसा का समर्थक व्यक्ति अपनी आजीविका के लिए ऐसे ही कार्य-व्यापार चुनेगा जिनमें कम से कम जीवघात हो । अधिक हिंसा वाले कार्यों से वह सदैव अपने आपको तथा अपने परिवार को बचाने की चेष्टा करेगा। - 4. विरोधी - हिंसा - अपने कुटुम्ब - परिवार की रक्षा करते समय, अपने शील-सम्मान और सम्पत्ति की रक्षा करते समय अथवा धर्म तथा देश के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करते समय और किसी आततायी या आक्रमणकारी का सामना करते समय जो हिंसा करनी पड़े वह विरोधी - हिंसा है। साधक को गृहस्थ अवस्था में अपनी आजीविका के लिए, अपने परिवार तथा समाज के लिए और अपने राष्ट्र-धर्म तथा धर्मायतनों के लिए बहुत से कर्त्तव्य पालन करने होते हैं। इन चारों प्रकार की हिंसा का त्याग कर देने पर उन कर्त्तव्यों का निर्वाह नहीं हो सकता, इसलिए गृहस्थ को मात्र संकल्पी - हिंसा के त्याग का उपदेश दिया है। गृहस्थ के लिए आरम्भी - हिंसा अपरिहार्य मानी गई है। विरोधी और उद्योगी-हिंसा के बिना भी उसका जीवन निर्वाह संभव नहीं होता । इसलिए कर्त्तव्य - पूर्ति के लिए अनिवार्य मानकर शेष तीन हिंसाओं का त्याग उसे नहीं कराया गया। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org

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