Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ रेप्टेलियन मस्तिष्क का प्रभाव अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ मानने और दूसरे सम्प्रदाय को हीन मानने की भावना को जन्म देता है। घृणा और द्वेष के बीज भी उससे अंकुरित होते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति पाने का मार्ग है मस्तिष्कीय शक्ति का सम्यक् विकास, विस्तार और उपयोग। हिंसा की जड़ें कहाँ हैं? इस प्रश्न का दार्शनिक उत्तर होगा-हिंसा की जड़ वृत्ति में है, कर्म-संस्कार में है। जीव वैज्ञानिक मानते है-हिंसा की जड़ जीन में है। जीन को हर अच्छेबुरे गुण के लिए जिम्मेदार माना जाता है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि हिंसा का जन्म न मनोवैज्ञानिक कारण से होता है और न जीन के कारण। इसका कारण रासायनिक परिवर्तन है। अमेरिका वैज्ञानिकों ने इस पर काफी खोज की है। इससे कई रोचक नतीजे सामने आए हैं। वैज्ञानिकों ने पाया कि हिंसा का कारण पुरुष यौन हार्मोन टेस्टोस्टेरोन हैं। जिन पुरुषों में इनकी मात्रा सामान्य से अधिक होती है, उनकी प्रवृत्ति हिंसात्मक होती है। इसी प्रकार सीरोटोनिन वह रसायन है, जो मस्तिष्क में शांति का संदेश फैलाता है। इसका एक उपउत्पाद 5 एच.आई.ए.ए. नामक रसायन, जो रीढ़ की हड्डी में द्रव रूप में पाया जाता है। इसे मापकर यह जाना जा सकता है कि व्यक्ति में हिंसात्मक प्रवृत्ति किस हद तक पनप चुकी है लेकिन इस रसायन को निकालना बड़ा कठिन है, क्योंकि रीढ़ की हड्डी से द्रव निकालने में असहनीय दर्द होता है। इसी वजह से यह खोज आगे नहीं बढ़ पा रही है। अगर निकट भविष्य में कोई बात बन गई तो शायद हिंसा का रसायनिक उपचार सामने हो। हिंसा का उपचार आवश्यक है। आज कोई भी अकेला व्यक्ति, अकेली विद्याशाखा और अकेली समाज-प्रणाली हिंसा की बीमारी का उपचार नहीं कर सकती । धर्मगुरु के पास हिंसा को कम करने का प्रयोग है तो उसका स्वागत है। किसी रसायन-वेत्ता वैज्ञानिक के पास उसका उपचार है तो उसका भी स्वागत है। समाजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने वाले समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री के पास उनका उपचार है तो उनका स्वागत है। किसी मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक के पास उसका उपचार है तो उनका भी स्वागत है। यह अनुभव-प्रसूत विश्वास के साथ कहा जा सकता है यदि अध्यात्म और विज्ञान, अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था का परिवर्तन इन सबका सामूहिक प्रयत्न हो तो हिंसा की बढ़ती हुई प्रवृत्ति पर नियंत्रण पाया जा सकता है। हिंसा और आतंक की छाया में जीने वाला समाज कभी स्वस्थ नहीं रह सकता । भय का तनाव बराबर बना रहता है। अभय और स्वास्थ्य में निकट का संबंध है। हिंसा धार्मिक दृष्टि से त्याज्य है। अनावश्यक हिंसा सामाजिक दृष्टि से भी वांछनीय नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में अहिंसा के संस्कार का निर्माण करने का दायित्व सबसे ज्यादा शिक्षा पर है। वर्तमान की शिक्षा प्रणाली में बौद्धिक, व्यावसायिक और यांत्रिक विकास के लिए बहुत कुछ तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NT 001y 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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