Book Title: Tirthankar Ek Anushilan
Author(s): Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publisher: Purnapragnashreeji, Himanshu Jain

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Page 9
________________ viii तीर्थंकर को अरिहन्त भी कहते हैं। जैन धर्म के सर्वप्रमुख मूलमंत्र नवकार के प्रथम पद 'णमो अरिहंताणं' में तीर्थंकर परमात्माओं को वन्दन करते हैं । वे इस धर्मसंघ के पिता हैं। अपने पूर्णज्ञान में देखकर जो भी उन्होंने फरमाया है, वह हमारी आत्मा के हित के लिए ही है। उनके वचनों में किसी भी प्रकार के संदेह या शंका का कोई स्थान है ही नहीं । आचारांगसूत्र में कहा गया है. " तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं " - जो भी कहा है, वही जिस तरह एक पिता की प्रत्येक आज्ञा पुत्र के हित के लिए होती है, उसी प्रकार परम पिता परमेश्वर की प्रत्येक आज्ञा हमारी आत्मा के हित के लिए ही है। यह चतुर्विध संघ उनकी प्रत्येक आज्ञा को समर्पित है । ऐसे परमहितचिन्तक तीर्थंकर परमात्मा हमारे आसन्न उपकारी हैं। उनकी वीतरागता के स्वरूप को सरल शब्दों में कहा गया है। - राग और द्वेष को पूरी तरह से जीतने वाले केवलज्ञानी तीर्थंकर परमात्मा सत्य है, असंदिग्ध है। न शूलं न चापं न चक्रादि हस्ते, न हास्यं न लास्यं न गीतादि यस्य । न नेत्रे न गात्रे न वचने विकार:, स एव परमात्मा गति मे जिनेन्द्र ॥ अर्थात् - जिनके हाथ में न शूल है, न धनुष-बाण है, न चक्र आदि शस्त्र हैं, जिनमें न हास्य-विनोद है, न नृत्य और न ही गीत आदि राग की बातें हैं, जिनके नत्र में, गात्र में और वचन में विकार नहीं है, ऐसे जिनेश्वर परमात्मा ही मेरी गति हैं । जैन अर्थात् जिनेश्वर - तीर्थंकर परमात्मा का अनुयायी । तीर्थंकर परमात्मा के कारण ही यह जिनशासन आज विराट् स्वरूप को प्राप्त है। आज अनेकानेक जैन लोग तीर्थंकर परमात्मा के स्वरूप को नहीं जानते । 'नहीं जानते' - यह समझ आता है लेकिन 'जानने की इच्छा ही न हो'- ऐसा स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। तीर्थंकर परमात्मा के विषय में सम्यक् ज्ञान हम सभी को होना ही चाहिए । प्रस्तुत पुस्तक 'तीर्थंकर : एक अनुशीलन' इसी प्रबलतम भावना का सुपरिणाम है। यद्यपि विविध आगमों, नियुक्तियों, भाष्यों, चूर्णियों, टीकाओं आदि अनेक ग्रंथों में तीर्थंकर परमात्मा के विषय में सामग्री प्राप्त होती है, उसी को सरल हिन्दी भाषा में संगृहीत - संकलित कर व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का लघु प्रयास किया है। इस कृति को जनोपयोगी रूप देने में श्रावकरत्न लाला श्री खजांचीलालजी के पौत्र एवं गुरुभक्त श्री कीर्ति जैन के पुत्र, उदीयमान लेखक हिमांशु जैन लिगा का भी सुन्दर सहयोग रहा। साध्वीमण्डल का भी यथोचित सहयोग मिला। मेरे जीवन की आद्य निर्मात्री, आसन्न उपकारी शान्तस्वभाविनी साधी सम्पतश्री जी एवं महत्तरा साध्वी सुमंगलाश्री जी को यह कृति सादर समर्पित है । इस पुस्तक में कुछ भी जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हो, तो मन, वचन और काया से मिच्छा मि दुक्कड़ं। - साध्वी पूर्णप्रज्ञाश्री

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