________________
७१. मनुष्य जैसा हराम-सेवन और संग्रहवृत्ति में तल्लीन हो जाता है, वैसा वह यदि प्रभु-भजन में रहा करे तो उसका बेड़ा पार होते देर नहीं लगती।
७२. अपनी मति को सदैव वैराग्य-रस में ओत-प्रोत रखो, जिससे जन्म-मरण सम्बन्धी दुःख मिटता जाए और आत्मा सुखमय बनती जाए।
७३. मिथ्यात्वी काले नाग से भी भयंकर है। काले नाग का ज़हर तो मन्त्र या औषधि द्वारा उतारा जा सकता है, किन्तु मिथ्यात्व-ग्रसित व्यक्ति की वासना कभी अलग नहीं की जा सकती। . .७४. परिग्रह-संचय शान्ति का शत्रु है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्राम-स्थल है, बुरे विचारों का कीड़ोद्यान है, घबराहट का खजाना है, प्रमत्तता का मन्त्री है और लड़ाई-दंगों का निकेतन है, अनेक पाप कर्मों का कोष है और विपत्तियों का विशाल स्थान है, अतः जो इसे छोड़कर सन्तोष धारण कर लेता है, वह संसार में सर्वत्र-सदैव सुखी रहता है।।
७५.. जब तक हम स्वयं अपनी कमजोर आदतों पर शासन न कर लें, तब तक हम दूसरों को कुछ नहीं कह सकते ; अतः सर्वप्रथम प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निर्बलताओं को सुधार कर, फिर दूसरों को सुधारने की इच्छा रखनी चाहिये।
७६. वर्षा का जल सर्वत्र समान रूप से बरसता है, परन्तु उसका जल इक्षु-क्षेत्र में मधुर, समुद्र में खारा, नीम में कड़वा, और गटर में गन्दा बन जाता है। इसी प्रकार शास्त्र-उपदेश परिणाम में सुन्दर है।
७७. जो मानव ऊँचे कुल में जन्म लेकर भी अपने आचार-विचार घृणित रखता है, वह नीच है; और जो अपना आचार-विचार सराहनीय रखता है, वह नीच कुलोत्पन्न होकर भी ऊँचा है।
परिग्रह शान्ति का शत्रु है
भटके पाँव खोज लेते हैं उन हमउम्र मंजिलों को नहीं पकड़ पाये थे. जिन्हें बुड्ढे रास्ते ।
-सेठिया
तीर्थकर : जून १९७५ / ३४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org