Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 126
________________ राष्ट्रीय जीवन और भाषा राष्ट्र के लिए भाषा एक सफल माध्यम है। भाषा की सहायता से राष्ट्र विस्तार ग्रहण करता है। समान भाषाभाषी के हृदय में दूसरे समानभाषी के प्रति व्यवहार-सौकर्य तो होता ही है, प्रेमभाव भी उत्पन्न होता है; अतः राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक भाषा का निर्धारण आवश्यक है। वह भाषा अधिकतम जनों की भाषा होनी चाहिये । उसके माध्यम से राष्ट्र के पूर्व-पश्चिम, दक्षिणोत्तर प्रान्तों के लोग समीप आयेंगे । एक सशक्त राष्ट्रभाषा के बिना केन्द्र-संस्था का राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार स्फीत नहीं हो सकेगा। विदेशों में राष्ट्रीय स्वर को किसी वैदिक अथवा प्रान्तीय भाषा द्वारा सम्मानित नहीं किया जा सकता। 'संगच्छध्वं, संवदध्वम्, सं वो मनांसि'-इस प्राचीन राष्ट्रीय सूक्त में साथ चलने, साथ बोलने तथा साथ-साथ मानसिक समत्व रखने का निर्देश किया गया है। यह राष्ट्र के सहअस्तित्व के लिए नितान्त उपयोगी है। अपनी टेढ़ी चाल से, वक्रगति से राष्ट्रीय राजमार्ग को विकृत नहीं करना चाहिये । प्रायः राष्ट्रभक्ति का परिचय व्यक्ति की भाषा से भी होता है। बहुरूपिये शब्द भाषा लोकव्यवहार में आकर परिमार्जित तथा स्फीत होती है । भाषा की समद्धि उसके उपयोक्ताओं पर है। उपयोक्ता जिस क्षेत्र में प्रगतिशील होंगे, भाषा और उसकी शब्द-निधि उस विषय में अधिक प्राञ्जल तथा अधिकार-सम्पन्न अभिव्यक्तिपूर्ण होगी। लोकजीवन में आकर ही शब्द विविध रूप ग्रहण करते हैं। कभी वे शीर्षासन करने लगते हैं और कालान्तर में वैसे ही रह जाते हैं तो कभी गेहुँओं में मिले यवकणों की तरह किसी अन्यार्थक शब्द के साथ मिलकर स्वयं अन्यार्थक हो जाते हैं। वैयाकरणों को यह परिवर्तित, विकृत अथवा अर्थान्तरपरिणत रूप बड़ा प्रिय लगता है। वे ढूंढ-ढूंढकर ऐसे शब्दों को लोकव्यवहार से ग्रहण करते हैं तथा उस पर अपनी मान्यता की मुहर लगा देते हैं। जैसे 'सिंह शब्द हिंस' से बना है। हिंसाजीवी होने से पूर्वसमय में इसे 'हिंस्र' कहते रहे होंगे। कालान्तर में वर्णविपर्यय हो गया, और हिंस शीर्षासन करने लगा, सिंह हो गया। 'देवानां प्रियः' का अर्थ है देवों का प्रिय । प्रियदर्शी अशोक सम्राट् को 'देवानां प्रिय' कहते थे । कालान्तर में इसका अर्थ 'मूर्ख' किया जाने लगा। सम्भव है, अशोक द्वारा बौद्धधर्म स्वीकारने से उसकी प्रशंसा को निन्दा में प्रचलित कर दिया गया हो । पाणिनी व्याकरण के 'षष्ठया चानादरे' सूत्र का उदाहरण 'देवानांप्रिय इति च मूर्खे,' दिया गया है। वस्तुतः देव और प्रिय दोनों शब्दों का मूर्ख अर्थ नहीं होता । तुलसीदासजी ने अपने एक दोहे में लिखा है-'रामचरण छहतीन रहु दुनिया से छत्तीस'-अर्थात् राम-भक्ति करते समय छह और तीन के अंकों के समान रहो-६३ तिरसठ का यह रूप परस्परोन्मुखी है; अतः अर्थ किया गया है तीर्थंकर : जन १९७५/१२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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