Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 193
________________ संत-साहित्य और जैन अपभ्रश-काव्य 0 डा. राममूर्ति त्रिपाठी मध्यकालीन हिन्दी-निर्गुण-साहित्य के लिए अब 'संत-साहित्य' शब्द रूढ़ हो गया है। मध्यकालीन समस्त भारतीय साधनाएँ आगम-प्रभावित हैं- संत-साहित्य भी। संत-साहित्य को "प्रभावित” कहने की अपेक्षा मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि “आगमिक दृष्टि" का ही वह लोकभाषा में सहज प्रस्फुरण है। अत: "प्रभावित" की जगह उसे “आगमिक" ही कहना संगत है। “आगमिक दृष्टि" को यद्यपि आर. डी. रानाडे ने अपने 'मिस्टीसिज्म इन महाराष्ट्र' में वैदिक सिद्धान्त का साधनात्मक अविच्छेद पार्श्व बताया है। इस प्रकार वे आगम को यद्यपि नगमिक कहना चाहते हैं पर इससे आगम के व्यक्तित्व का विलोप नहीं होता। प्राचीन आर्य ऋषियों की एक दृष्टि का जैसा विकास और परिष्कार आगमों में मिलता है-वैसा नैगमिक "दर्शनों" में नहीं। इसलिए मैं जिसे आगमिक दृष्टि' कहना चाहता हूँ--उसका संकेत भले ही वैदिक वाङमय में हो-पर उसका स्वतंत्र विकास और प्रतिष्ठा आगमों में हुई-यह विशेष रूप से ध्यान रखने की बात है। ___ 'आगम' यद्यपि भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रचलित और प्ररूढ़ शब्द है-तथापि यहाँ एक विशेष अर्थ में वांछित है और वह अर्थ है-द्वयात्मक अद्वयतत्त्व की पारमार्थिक स्थिति । द्वय हैं-शक्ति और शिव । विश्व-निर्माण के लिए स्पन्दनात्मक शक्ति की अपेक्षा है और विश्वातीत स्थिति के लिए निःस्पन्द शिव । स्पन्द और निःस्पन्द की बात विश्वात्मक और विश्वातीत दृष्टियों से की जा रही है, दृष्टिनिरपेक्ष होकर उसे कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती। तब वह विश्वातीत तो है ही, विश्वात्मक परिणति की संभावना से संवादातीत होने के कारण विश्वात्मक भी। वैज्ञानिक भाषा में इन्हें ही ऋणात्मक तथा धनात्मक तत्त्व कह सकते हैं। विशेषता इतनी ही है कि “आगम" में इन्हें 'चिन्मय' कहा गया है। नैगमिक दर्शनों में कोई भी (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, पातञ्जल, पूर्व-मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा) “शक्ति" की "चिन्मय" रूप कल्पना नहीं करता। कुछ तो ऐसे हैं जो "शक्ति” तत्त्व ही नहीं मानते, कुछ मानते भी हैं तो “जड़” । “अगम" (अद्वयवादी) “शक्ति” को "चिन्मय" कहते हैं और "शिव' की अभिन्न क्षमता के रूप में स्वीकार करते हैं। अद्वयस्थ वही द्वयात्मकता आत्मलीला के निमित्त द्विधा विभक्त होकर परस्पर व्यवहित हो जाती है-पृथक हो जाती है। इस व्यवधान अथवा पार्थक्य के कारण समस्त श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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