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कि स्थिति आ जाती है। इस तरह सामरस्य की अनेकत्र चर्चा उपलब्ध हो जाती है।
देह महेली एह बढ़ तउ सत्तावइ ताम ।
चित्तु णिरंजणु परिणु सिंह समरसि होइ ण जाम ।। लक्ष्य के रूप में इसी “सामरस्य" की उपलब्धि भी उन्हें इष्ट है। सतों ने जिस मनोन्मनी दशा की और संकेत किया है, उसका पूर्वाभास इन लोगों में भी उपलब्ध है
तु इ बुद्धि तड़त्ति जहिं मणु अं वणहं जाइ ।
सो सामिय उ एसु कहि अणणहिं देवहिं काइ । - इस सामरस्य की उपलब्धि हो जाने पर बुद्धि का “अध्यवसाय" तथा मन की संकल्प-विकल्पात्मक वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। आगम-संवादी संतों के स्वर में अन्य देवताओं की उपासना से विरति तथा उक्त गंतव्य की उपलब्धि ही स्वामी की ओर से इन्हें है। कहीं-कहीं तो संतों और इन जैन मुनियों की उक्तियाँ एक दूसरे का रूपान्तर जान पड़ती हैं। नमक और पानी के एक ही दृष्टान्त से जो बात रामसिंह कहते हैं वही कबीर भी
जिमि लोण विलिज्जइ पाणियह तिम जइ चित्त बिलिज्ज । समरसि हूवइ जीवहा काह समाहि करिज्ज? ठीक इसी की प्रतिध्वनि कबीर में देखेंमन लागा उनमन्न सौं उनमन मनहि विलग ।
लूंण विलगा पांणया, पांणी लूणा बिलग ॥ (२) वासना-दमन की जगह वासना-शोधन और उसकी सहजानंद में स्वाभाविक
परिणति के संकेत
बौद्ध सिद्धों के समकालीन जैन संतों में भी चरमावस्था के लिए "सहजानन्द" शब्द का प्रयोग मिलता है। संतों ने तो शतशः सहस्रशः “सहज" की बात कही है। भारतीय साधना धारा में जैन मुनियों के "कृच्छ्र” के विपरीत ही “सहज” साधना
और साध्य की बात संभव है प्रचलित हुई हो । अध्यात्म साधना में मन का एकाग्रीकरण विक्षेपमूल वासना या काषाय के शोषण से तो “श्रमण" मानते ही थे, दूसरे प्रवृत्तिमार्गी आगमिक साधक ऐसी कुशलता सहज पा लेना चाहते थे कि वासनारूपी जल में रहकर ही विपरीत प्रवाह में रहना उन्हें आ जाए। साधकों को यह प्रक्रिया दमन की अपेक्षा अनुकूल लगी । तदर्थ वासनाजन्य' अधोवर्ती स्थिति का ऊर्वीकरण अगामित' था। जैन साधकों के अपभ्रंश काव्य में तो संकेत खोजे जा सकते हैं, पर भाषाकाव्य में कबीर के बाद स्पष्ट कथन मिलने लगते हैं । जैन मरमी आनंदघन की रचनाएँ साक्षी हैं। वे कहते हैं
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१९३
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