Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 154
________________ जो सूखते हैं, क्षीण होते हैं, बढ़ते हैं ऐसे पुद्गलों के जुड़ने-बिछुड़ने को स्कन्ध कहते हैं। खवणा--क्षपणा। क्षपणमपचयो निर्जरा पापकर्मक्षपणहेतुत्वात् क्षपणा। भावाध्ययने सामायिकादि श्रुतविशेषे, अनु. । आ. म.। अस्या 'झवणा' इत्यादि रूपं भवति। (३. ७३३) क्षपणा' शब्द 'क्षपण' से बना है, जिसका अर्थ है--खपाना, क्षय करना। पूर्व में बाँधे हुए पाप कर्मों को खपाना, झड़ाना 'क्षपणा' है। इसका एक अर्थ 'ध्यान' भी है। सामायिक में ध्यान की विशेष स्थिति को 'क्षपणा' कहा जाता है। चेइय--चैत्य । चिति: पत्रपुष्पफलादीनामुपचयः। चित्या साधु चित्यं, चित्यमेव चैत्यं । उद्याने। चित्तमन्तःकरणं तस्य भावे । जिनबिम्ब । (३. १२०५) _ 'चैत्य' शब्द 'चितिः' से निष्पन्न है । चिति का अर्थ है--पत्र, पुष्प, फल आदि का ढेर (समाधि-स्थल) । साधु को भी 'चित्य' कहते हैं। जहाँ साधु रहते हैं, उस स्थान या उद्यान को भी 'चैत्य' कहा जाता है। 'चिति' का अर्थ 'चित्त' भी है--जिनबिम्ब में जिसके चित्त का भाव है, उसे 'चैत्य' कहते हैं। जिण--जिन। जयति निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिःत जिनः । जयति रागद्वेषमोहरूपानन्तरङ्गान् रिपूनिति जिनः । (४. १४५९) 'जिन' शब्द 'जि' धातु से निर्मित है। जीतने वाला 'जिन' है--जो राग, द्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं को जीतता है। णरग--नरक-पुं.। नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणऽऽकार यन्ति जन्तून् स्वस्वस्थाने इति नरकाः। (४. १९०४) जहाँ लड़ते-झगड़ते मनुष्यों पर चिल्लाते हैं, वह स्थान नरक है। तित्थ--तीर्थ । तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम् । (४. २२४२) जिससे पार उतरते हैं, उस घाट को तीर्थ कहते हैं। दव्य-द्रव्य । द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम् । जो परिणमनशील है, जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, उसे द्रव्य कहते हैं। परिग्गह-परिग्रह । परिगृह्यन्ते आदीयतेऽस्मादिति परिग्रहः । (५. ५७१) चारों ओर से ग्रहण या पकड़ का नाम परिग्रह है। परिणाम--परि समन्तान्नमनं परिणामः । परीति सर्वप्रकार नमनं जीवानामाजीवानां च जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवने, उत्त. १, अ.। (५. ५९२) चारों ओर से झुकना परिणाम है। सब प्रकार से जीव और अजीव का अपने रूप झुकना व अनुभव करना परिणाम है। पमाय--प्रमाद--प्रकर्षण माद्यन्त्यनेनेति प्रमादः । प्रमादतायाम् । (५. ४७९) बहुत अधिक असावधान होना प्रमाद है। परिसह-परीषह । परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गच्यवननिर्जरार्थं साध्वादिभिः सह्यन्ते इति परीषहा। (५. ६३७)। कर्मों की निर्जरा के लिए साधुओं का चारों ओर से बाधा होने पर सहन करना परीषह है। तीर्थंकर : जून १९७५/१५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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