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जो-जू
ठित समाज को ही अस्वीकार करता था। उसे अनित्य और दुःखकर मानता था। महावीर के भारतीय समकालीनों के मो-त्जू अत्यन्त निकट था। वह भी अभिजात था, उसका दर्शन भी आभिजात्य सूचक ऐकान्तिक था। उसका दार्शनिक आन्दोलन मोहिस्त नाम से फैला।
ताओवाद का प्रवर्तक लाओ-त्जू भी प्रायः तभी हुआ था, यद्यपि उसकी ऐतिहासिकता में कुछ लोगों ने अविश्वास किया है। लाओ-त्जू चाहे ऐतिहासिक व्यक्ति न रहा हो, पर उसके दर्शन की बेल उसी काल लगी जब केवली महावीर अहिंसा और सत्य का भारत में प्रचार कर रहे थे।
ताओवाद पर्याप्त फैला, जो वस्तुतः आज तक मर नहीं पाया। बौद्ध धर्म के चीन में प्रचार के बाद उसका दर्शन नये धर्म का सबल प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हआ। अपने सावधि समाज को उसने भी निम्नगामी-'डिकेडेन्ड'-माना और अकृत्रिम सहज जीवन को उसने अपनाया। उसने प्रव्रज्या को सराहा और कभी राजसत्ता का अनुगामी वह नहीं बना। .. . महत्त्व की बात है कि कन्फूशस को छोड़ शेष प्रायः सारे चीनी दार्शनिक चिन्तक भारतीय चिन्तकों की ही भांति अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा का जीवन जी रहे थे और उसका प्रचार कर रहे थे। यही कारण था कि बौद्ध भिक्षुओं का जब चीन में प्रवेश हुआ, तब वहां के श्रद्धालुओं को वह नया बौद्ध धर्म सर्वथा विदेशी नहीं लगा। वस्तुतः इन आन्दोलनों ने उस धर्म के लिए भूमि तैयार कर दी। कुछ ही काल बाद चीन में एक विकट घटना घटी। उत्तर-पश्चिम में सूखा पड़ा, कान्सू के हूण विचल हुये, चारागाहों की खोज में पश्चिम की ओर चले और उनकी टक्करों से यहची उखड़ गये। यहचियों ने शकों को और पश्चिम में धकेला, शकों ने वक्ष (आमदरिया) की घाटी से ग्रीकों को भगा दिया। यूहची की पीठ पर ही हूण भी थे, जो आमूदरिया में जा बसे । तभी भारत का अशोक बौद्ध धर्म के साधु देशान्तरों में भेज रहा था, जिसके पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य ने महावीर के धर्म को अपनाया था और जिसके पौत्र दशरथ और सम्प्रति क्रमशः आजीवक और जैन धर्मों का पालन-प्रचार कर रहे थे। चीन ने देखा, तकलामकान
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१६१
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